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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 704
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
6
ऊ꣣र्जो꣡ नपा꣢꣯त꣣ꣳ स꣢ हि꣣ना꣡यम꣢꣯स्म꣣यु꣡र्दाशे꣢꣯म ह꣣व्य꣡दा꣢तये । भु꣢व꣣द्वा꣡जे꣢ष्ववि꣣ता꣡ भुव꣢꣯द्वृ꣣ध꣢ उ꣣त꣢ त्रा꣣ता꣢ त꣣नू꣡ना꣢म् ॥७०४॥
स्वर सहित पद पाठऊ꣡र्जः꣢ । न꣡पा꣢꣯तम् । सः । हि꣣न꣢ । अ꣣य꣢म् । अ꣣स्म꣢युः । दा꣡शे꣢꣯म । ह꣣व्य꣢꣯दातये । ह꣣व्य꣢ । दा꣣तये । भु꣡व꣢꣯त् । वा꣡जे꣢꣯षु । अ꣣वि꣢ता । भु꣡व꣢꣯त् । वृ꣣धे꣢ । उ꣣त꣢ । त्रा꣣ता꣢ । त꣣नू꣡ना꣢म् ॥७०४॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्जो नपातꣳ स हिनायमस्मयुर्दाशेम हव्यदातये । भुवद्वाजेष्वविता भुवद्वृध उत त्राता तनूनाम् ॥७०४॥
स्वर रहित पद पाठ
ऊर्जः । नपातम् । सः । हिन । अयम् । अस्मयुः । दाशेम । हव्यदातये । हव्य । दातये । भुवत् । वाजेषु । अविता । भुवत् । वृधे । उत । त्राता । तनूनाम् ॥७०४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 704
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(ऊर्जः-नपातम्) हमारे आत्मस्वरूप को न गिराने वाले अग्नि ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा को “ऊर्ग्वै स्वं यावद्वै पुरुषस्य स्वं भवति” [श॰ ५.३.५.१२] उपासित करें (सः-हिना-अयम्-अस्मयुः) वह सचमुच यह हमें चाहने वाला अपनाने वाला है (हव्यदातये दाशेम) हम अपनी उपासनाहवि को देने के लिए अपने को समर्पित करते हैं (वाजेषु-अविता भुवत्) वह अमृत अन्नभोगों के निमित्त रक्षक है (उत) और (तनूनां वृधे त्राता भुवत्) उपासक आत्माओं के वर्धन—उत्कर्ष के लिए “आत्मा वै तनूः” [श॰ ६.७.२.६] रक्षक होता है।
भावार्थ - हम अपने आत्मस्वरूप को न गिराने वाले अपितु उन्नत करने वाले ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मा की उपासना करें। वह भी यथार्थरूप से हमें अपनाने वाला है, अतः उपासनारूप भेंट अर्पित करने के लिए हम अपने को उसकी ओर प्रेरित करें। वह हमारे अमृतभोगों के हेतु रक्षक बनता है और वह सदा उपासक आत्माओं की वृद्धि उन्नति के लिए रक्षक होता है॥२॥
विशेष - <br>
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