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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 787
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
प꣡व꣢मानस्य ते व꣣यं꣢ प꣣वि꣡त्र꣢मभ्युन्द꣣तः꣢ । स꣣खित्व꣡मा वृ꣢꣯णीमहे ॥७८७॥
स्वर सहित पद पाठप꣡व꣢꣯मानस्य । ते꣣ । वय꣢म् । प꣣वि꣡त्र꣢म् । अ꣣भ्युन्द꣢तः । अ꣣भि । उन्दतः꣢ । स꣣खित्व꣢म् । स꣣ । खित्व꣢म् । आ । वृ꣣णीमहे ॥७८७॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमानस्य ते वयं पवित्रमभ्युन्दतः । सखित्वमा वृणीमहे ॥७८७॥
स्वर रहित पद पाठ
पवमानस्य । ते । वयम् । पवित्रम् । अभ्युन्दतः । अभि । उन्दतः । सखित्वम् । स । खित्वम् । आ । वृणीमहे ॥७८७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 787
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
(पवित्रम्-अभ्युन्दतः) पवित्रकारक आनन्दरस को क्षरित करते हुए—बहाते हुए (ते पवमानस्य) तुझ आनन्दधारा में प्राप्त होते हुए परमात्मा के (सखित्वम्-आवृणीमहे) सखापन मित्रभाव को हम समन्तरूप से वरते हैं—अङ्गीकार करते हैं।
भावार्थ - आत्मा को पवित्र करने वाले आनन्दरस को क्षरित करते हुए आनन्दधारा में प्राप्त होने वाले परमात्मा की मित्रता को अवश्य अपनाना चाहिये॥१॥
विशेष - ऋषिः—अमहीयुः (पृथिवी का नहीं मोक्ष का इच्छुक उपासक)॥ देवता—पवमानः सोमः (आनन्दधारा में आता हुआ परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>
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