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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 820
ऋषिः - नहुषो मानवः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम -
4
य꣡ ओजि꣢꣯ष्ठ꣣स्त꣡मा भ꣢꣯र꣣ प꣡व꣢मान श्र꣣वा꣡य्य꣢म् । यः꣡ पञ्च꣢꣯ चर्ष꣣णी꣢र꣣भि꣢ र꣣यिं꣢꣫ येन꣣ व꣡ना꣢महे ॥८२०॥
स्वर सहित पद पाठयः । ओ꣡जि꣢꣯ष्ठः । तम् । आ । भ꣣र । प꣡व꣢꣯मान । श्र꣣वा꣡य्य꣢म् । यः । प꣡ञ्च꣢꣯ । च꣣र्षणीः꣢ । अ꣣भि꣢ । र꣣यि꣢म् । ये꣡न꣢꣯ । व꣡ना꣢꣯महे ॥८२०॥
स्वर रहित मन्त्र
य ओजिष्ठस्तमा भर पवमान श्रवाय्यम् । यः पञ्च चर्षणीरभि रयिं येन वनामहे ॥८२०॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । ओजिष्ठः । तम् । आ । भर । पवमान । श्रवाय्यम् । यः । पञ्च । चर्षणीः । अभि । रयिम् । येन । वनामहे ॥८२०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 820
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(पवमान) हे धारारूप में प्राप्त होने वाले परमात्मन्! (यः-ओजिष्ठः) जो तेरा सर्वोत्तमरस—आनन्दरस है (तं श्रवाय्यम्-आभर) उस श्रवणीय—अङ्गीकार करने योग्य—अपने अन्दर समाने योग्य को हमारे अन्दर आभरित कर (यः पञ्च चर्षणीः-अभि) जो पाँच मनुष्यों—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद—वनवासी जनों—मनुष्य मात्र को “चर्षणयः-मनुष्याः” [निघं॰ २.३] अभि—अभिप्राप्त—करने योग्य अध्यात्मरस है (येन) जिसके द्वारा (रयिं वनामहे) हम पुष्ट—मुक्त जीवन “पुष्टं वै रयिः” [श॰ २.३.४.१३] सेवन कर सकें।
भावार्थ - हे मेरे प्यारे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तेरा जो सर्वोत्तम आनन्दरस है अपने अन्दर समाविष्ट करने योग्य को हमारे अन्दर आभरित कर दे जो मनुष्यमात्र को धारण करने योग्य है। परमात्मदर्शन या परमात्मश्रवण करने का अधिकार मनुष्यमात्र—वनवासी तक को है जिस से मुक्तजीवन बना सके॥३॥
विशेष - <br>
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