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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 831
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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वि꣣घ्न꣡न्तो꣢ दुरि꣣ता꣢ पु꣣रु꣢ सु꣣गा꣢ तो꣣का꣡य꣢ वा꣣जि꣡नः꣢ । त्म꣡ना꣢ कृ꣣ण्व꣢न्तो꣣ अ꣡र्व꣢तः ॥८३१॥

स्वर सहित पद पाठ

वि꣡घ्न꣢न्तः । वि꣣ । घ्न꣡न्तः꣢꣯ । दु꣣रिता꣢ । दुः꣣ । इता꣢ । पु꣣रु꣢ । सु꣣गा꣢ । सु꣣ । गा꣢ । तो꣣का꣡य꣢ । वा꣣जि꣡नः꣢ । त्म꣡ना꣢꣯ । कृ꣣ण्व꣡न्तः꣢ । अ꣡र्व꣢꣯तः ॥८३१॥


स्वर रहित मन्त्र

विघ्नन्तो दुरिता पुरु सुगा तोकाय वाजिनः । त्मना कृण्वन्तो अर्वतः ॥८३१॥


स्वर रहित पद पाठ

विघ्नन्तः । वि । घ्नन्तः । दुरिता । दुः । इता । पुरु । सुगा । सु । गा । तोकाय । वाजिनः । त्मना । कृण्वन्तः । अर्वतः ॥८३१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 831
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(वाजिनः) अमृत अन्नभोगों वाला “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै॰ २.१९३] सोम शान्त परमात्मा (दुरिता विघ्नन्तः) दुःख अज्ञान पापों को विशेषरूप से नष्ट करता हुआ (तोकाय पुरु सुगा) निकेतन—शरीरस्थान के लिए “तुज निकेतने” [चुरादि॰] बहुत सुगतियों सुखसाधनों को तथा (त्मना-अर्वतः कृण्वन्तः) ‘आत्मनः—आकारादेशः शसि’ आत्माओं को पौरुष वाले—बलवान् करता हुआ “पुमांसोऽर्वन्तः” [श॰ ३.२.४.७] प्राप्त होता है।

भावार्थ - अमृतभोगों वाला सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा मन के अज्ञान पाप दुःख को नष्ट करता हुआ शरीरस्थान के सुगमन—सुखसाधनों को स्थिर करता हुआ और आत्मा को बलवान्—आत्मबलवान् बनाता हुआ प्राप्त होता है॥२॥

विशेष - <br>

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