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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 843
ऋषिः - कश्यपो मारीचः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
6
पु꣣नानो꣢ दे꣣व꣡वी꣢तय꣣ इ꣡न्द्र꣢स्य याहि निष्कृ꣣त꣢म् । द्यु꣣तानो꣢ वा꣣जि꣡भि꣢र्हि꣣तः꣢ ॥८४३॥
स्वर सहित पद पाठपु꣣ना꣢नः । दे꣣व꣢वी꣢तये । दे꣣व꣢ । वी꣣तये । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । या꣣हि । निष्कृत꣢म् । निः꣣ । कृत꣢म् । द्यु꣣ता꣢नः । वा꣣जि꣡भिः꣢ । हि꣣तः꣢ ॥८४३॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनानो देववीतय इन्द्रस्य याहि निष्कृतम् । द्युतानो वाजिभिर्हितः ॥८४३॥
स्वर रहित पद पाठ
पुनानः । देववीतये । देव । वीतये । इन्द्रस्य । याहि । निष्कृतम् । निः । कृतम् । द्युतानः । वाजिभिः । हितः ॥८४३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 843
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(वाजिभिः-हितः) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू वाजी—छन्दी—छन्द—अर्जन स्तुति करने वाले उपासकों द्वारा “छन्दांसि वै वाजिः” [मै॰ १.१०] “छन्दति अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४] हित—ध्याया हुआ (द्युतानः पुनानः) उपासकों को प्रकाशमान और पवित्र करता हुआ (देववीतये) देवों—जीवन्मुक्तों की गति—गमनस्थली—मुक्ति है उसके लिए (इन्द्रस्य निष्कृतं याहि) अध्यात्मयज्ञ के यजमान आत्मा के संस्कृत—सुपात्र हृदय को प्राप्त हो “यद् वै निष्कृतं तत् संस्कृतम्” [ऐ॰ आ॰ १.१.४]।
भावार्थ - हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू अर्चना करने वाले उपासना करनेवाले उपासकों के द्वारा ध्याया हुआ, उपासकों के अन्दर प्रकाशित हुआ, उन्हें पवित्र करता हुआ, मुक्ति प्राप्ति के लिए आत्मा के सुसज्जित अन्तःपात्र को प्राप्त होता है॥३॥
विशेष - <br>
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