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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 845
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
य꣡स्त्वाम꣢꣯ग्ने ह꣣वि꣡ष्प꣢तिर्दू꣣तं꣡ दे꣢व सप꣣र्य꣡ति꣢ । त꣡स्य꣢ स्म प्रावि꣣ता꣡ भ꣢व ॥८४५॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । त्वाम् । अ꣣ग्ने । हवि꣡ष्प꣢तिः । ह꣣विः꣢ । प꣣तिः । दूत꣢म् । दे꣣व । सपर्य꣡ति꣢ । त꣡स्य꣢꣯ । स्म꣣ । प्राविता꣢ । प्र꣣ । आविता꣣ । भव ॥८४५॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्त्वामग्ने हविष्पतिर्दूतं देव सपर्यति । तस्य स्म प्राविता भव ॥८४५॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । त्वाम् । अग्ने । हविष्पतिः । हविः । पतिः । दूतम् । देव । सपर्यति । तस्य । स्म । प्राविता । प्र । आविता । भव ॥८४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 845
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -
(अग्ने देव) हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मदेव! (यः) जो (हविष्पतिः) अपने मन का स्वामी—मन को निरुद्ध कर चुका हुआ उपासक “मनो हविः” [तै॰ आ॰ ३.६.१] (त्वां दूरं सपर्यति) तुझ प्रेरक को सेवित करता है—तेरी उपासना करता है (तस्य स्म) उसका निश्चय (प्र-अविता भव) तू प्रबल रक्षक है।
भावार्थ - हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! जो मन को निरुद्ध कर तेरी उपासना करता है उसकी तू पूर्णरूप से रक्षा करता है॥२॥
विशेष - <br>
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