Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 865
ऋषिः - मेध्यातिथिः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम -
3

स्व꣡र꣢न्ति त्वा सु꣣ते꣢꣫ नरो꣣ व꣡सो꣢ निरे꣣क꣢ उ꣣क्थि꣡नः꣢ । क꣣दा꣢ सु꣣तं꣡ तृ꣢षा꣣ण꣢꣫ ओक꣣ आ꣡ ग꣢म꣣ इ꣡न्द्र꣢ स्व꣣ब्दी꣢व꣣ व꣡ꣳस꣢गः ॥८६५॥

स्वर सहित पद पाठ

स्व꣡रन्ति꣢꣯ । त्वा꣣ । सुते꣢ । न꣡रः꣢꣯ । व꣡सो꣢꣯ । नि꣣रेके꣢ । उ꣣क्थि꣡नः꣢ । क꣣दा꣢ । सु꣣त꣢म् । तृ꣣षाणः꣡ । ओ꣡कः꣢꣯ । आ । ग꣣मः । इ꣡न्द्र꣢꣯ । स्व꣣ब्दी꣢ । इ꣣व । व꣡ꣳस꣢꣯गः ॥८६५॥


स्वर रहित मन्त्र

स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उक्थिनः । कदा सुतं तृषाण ओक आ गम इन्द्र स्वब्दीव वꣳसगः ॥८६५॥


स्वर रहित पद पाठ

स्वरन्ति । त्वा । सुते । नरः । वसो । निरेके । उक्थिनः । कदा । सुतम् । तृषाणः । ओकः । आ । गमः । इन्द्र । स्वब्दी । इव । वꣳसगः ॥८६५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 865
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment

पदार्थ -
(वसो-इन्द्र) हे सर्वत्र वसे हुए ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! (एके-उक्थिनः-नरः) विरले भाग्यशाली स्तुतिवाणी वाले “वाग्-उक्थम्” [ष॰ १.५] मुमुक्षु जन “नरो ह वै देवविशः” [जै॰ १.८९] (सुते) उपासनारस सम्पन्न हो जाने पर (त्वा निः स्वरन्ति) तुझे सम्यक् गाते हैं तेरा सम्यक् भजन गान गाते हैं कि (ओकः-तृषाणः) कब, जलाशय की ओर प्यासे हरिण की भाँति ‘लुप्तोपमानोपमा-वाचकालङ्कारः’ (कदासुतम्-आगमः) कब—कभी तो सम्पन्न उपासनारस की ओर आता है (स्वब्दी-इव वंसगः) सु-निश्चित अब्दी—अब्द—संवत्सर—समय वाले “संवत्सरो वा अब्दः” [तै॰ स॰ ५.६.४.१] वननीय स्थान को प्राप्त होने वाले अतिथि की भाँति।

भावार्थ - हे सर्वत्र बसने वाले ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! विरले भाग्यशाली स्तुतिकर्ता मुमुक्षु जन उपासनारस सम्पन्न हो जाने पर तेरा भली भाँति गान करते हैं और प्रतीक्षा करते हैं। जलाशय पर जलपान करने के लिए प्यासे हरिण की भाँति तू उपास्य कब आता है—कभी तो आयेगा ही। जैसे वर्ष या अपने विशेष समय पर विशिष्ट पूजनीय अतिथि वननीय स्थान पर आता ही है॥२॥

विशेष - <br>

इस भाष्य को एडिट करें
Top