ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 43/ मन्त्र 17
सम॒श्विनो॒रव॑सा॒ नूत॑नेन मयो॒भुवा॑ सु॒प्रणी॑ती गमेम। आ नो॑ र॒यिं व॑हत॒मोत वी॒राना विश्वा॑न्यमृता॒ सौभ॑गानि ॥१७॥
स्वर सहित पद पाठसम् । अ॒श्विनोः॑ । अव॑सा । नूत॑नेन । म॒यः॒ऽभुवा॑ । सु॒ऽप्रनी॑ती । ग॒मे॒म॒ । आ । नः॒ । र॒यिम् । व॒ह॒त॒म् । आ । उ॒त । वी॒रान् । आ । विश्वा॑नि । अ॒मृ॒ता॒ । सौभ॑गानि ॥
स्वर रहित मन्त्र
समश्विनोरवसा नूतनेन मयोभुवा सुप्रणीती गमेम। आ नो रयिं वहतमोत वीराना विश्वान्यमृता सौभगानि ॥१७॥
स्वर रहित पद पाठसम्। अश्विनोः। अवसा। नूतनेन। मयःऽभुवा। सुऽप्रनीती। गमेम। आ। नः। रयिम्। वहतम्। आ। उत। वीरान्। आ। विश्वानि। अमृता। सौभगानि ॥१७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 43; मन्त्र » 17
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 7
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 7
भावार्थ - जे अध्यापक व उपदेशक सर्व माणसांना नवीन व प्राचीन विद्येने युक्त करून ऐश्वर्य प्राप्त करवितात ते सदैव प्रशंसित होतात. ॥ १७ ॥
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