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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 43
    ऋषिः - भार्गव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    पा॒हि नो॑ऽ अग्न॒ऽ एक॑या पा॒ह्युत द्वि॒तीय॑या।पा॒हि गी॒र्भि॑स्ति॒सृभि॑रूर्जां पते पा॒हि च॑त॒सृभि॑र्वसो॥४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पा॒हि। नः॒। अ॒ग्ने॒। एक॑या। पा॒हि। उ॒त। द्वि॒तीय॑या। पा॒हि। गी॒र्भिरिति॑ गीः॒ऽभिः। ति॒सृभि॒रिति॑ ति॒सृऽभिः॑। ऊ॒र्जा॒म्। प॒ते॒। पा॒हि। च॒त॒सृभि॒रिति॑ चत॒सृऽभिः॑। व॒सो॒ इति॑ वसो ॥४३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पाहि नो अग्न एकया पाह्युत द्वितीयया । पाहि गीर्भिस्तिसृभिरूर्जाम्पते पाहि चतसृभिर्वसो ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पाहि। नः। अग्ने। एकया। पाहि। उत। द्वितीयया। पाहि। गीर्भिरिति गीःऽभिः। तिसृभिरिति तिसृऽभिः। ऊर्जाम्। पते। पाहि। चतसृभिरिति चतसृऽभिः। वसो इति वसो॥४३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 43
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    भावार्थ - सत्यवादी, धर्मात्मा, आप्त लोक हे उपदेश व अध्यापक या व्यतिरिक्त माणसांचे कल्याण करणारे कोणतेही साधन मानत नाहीत. त्यामुळे विद्वान लोक नेहमी अज्ञानी माणसांवर कृपा करतात व त्यांना उपदेश करतात आणि शिकवितात.

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