ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 36/ मन्त्र 7
श्या॒वाश्व॑स्य सुन्व॒तस्तथा॑ शृणु॒ यथाशृ॑णो॒रत्रे॒: कर्मा॑णि कृण्व॒तः । प्र त्र॒सद॑स्युमाविथ॒ त्वमेक॒ इन्नृ॒षाह्य॒ इन्द्र॒ ब्रह्मा॑णि व॒र्धय॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठश्या॒वऽअ॑श्वस्य । सु॒न्व॒तः । तथा॑ । शृ॒णु॒ । यथा॑ । अशृ॑णोः । अत्रेः॑ । कर्मा॑णि । कृ॒ण्व॒तः । प्र । त्र॒सद॑स्युम् । आ॒वि॒थ॒ । त्वम् । एकः॑ । इत् । नृ॒ऽसह्ये॑ । इन्द्र॑ । ब्रह्मा॑णि । व॒र्धय॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्यावाश्वस्य सुन्वतस्तथा शृणु यथाशृणोरत्रे: कर्माणि कृण्वतः । प्र त्रसदस्युमाविथ त्वमेक इन्नृषाह्य इन्द्र ब्रह्माणि वर्धयन् ॥
स्वर रहित पद पाठश्यावऽअश्वस्य । सुन्वतः । तथा । शृणु । यथा । अशृणोः । अत्रेः । कर्माणि । कृण्वतः । प्र । त्रसदस्युम् । आविथ । त्वम् । एकः । इत् । नृऽसह्ये । इन्द्र । ब्रह्माणि । वर्धयन् ॥ ८.३६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 36; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 7
पदार्थ -
हे (इन्द्र) शक्तिशाली प्रभु! (कर्माणि कुर्वतः) स्वजीवन यात्रा में सतत कर्म करने में रत (अत्रेः) विविध दोषों से रहित व्यक्ति की स्तुति को आप (यथा अशृणोः) जिस तरह सुनते हैं तथा वैसे ही (सुन्वतः) सुख सम्पादन में लगे हुए (श्यावाश्वस्य) अपनी गतिशीलता द्वारा लक्ष्य प्राप्ति में सफल इन्द्रिय रूप अश्वों वाले साधक की वन्दना भी सुनिये। (त्वम् एक इत्) आप अकेले ही किसी सहायक के माध्यम के बिना (नृषाह्ये) प्रमुख या अग्रणी लोगों के सम्मेलन में (ब्रह्माणि) वेदविज्ञान की (वर्धयन्) व्याख्या करके (त्रसदस्युम्) शत्रु भावनाओं को भगाने में समर्थ साधक को तथा उसके इस गुण को (प्र आविथ) बनाये रखते हैं॥७॥
भावार्थ - इससे पहले के मन्त्र में बताया गया है कि त्रिविध दोषों से रहित कर्मठ व्यक्ति ईश्वरीय गुणों को ग्रहण करने में समर्थ होता है। यहाँ बताया गया है कि जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर ले चलने में सफल बना ले, वह भी परमात्मा के गुणग्रहण करने का अधिकारी होता है। ऐसे व्यक्ति जब मिलकर विचार करें तब वेदवाक्य उन्हें प्रभु कृपा से स्वयं अपना रहस्य ज्ञात कराने लगते हैं। ७॥ अष्टम मण्डल में छत्तीसवाँ सूक्त व अठारहवाँ वर्ग समाप्त॥
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