ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 56/ मन्त्र 2
ऋषिः - पृषध्रः काण्वः
देवता - प्रस्कण्वस्य दानस्तुतिः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
दश॒ मह्यं॑ पौतक्र॒तः स॒हस्रा॒ दस्य॑वे॒ वृक॑: । नित्या॑द्रा॒यो अ॑मंहत ॥
स्वर सहित पद पाठदश॑ । मह्य॑म् । पौ॒त॒ऽक्र॒तः । स॒हस्रा॑ । दस्य॑वे । वृकः॑ । नित्या॑त् । रा॒यः । अ॒मं॒ह॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दश मह्यं पौतक्रतः सहस्रा दस्यवे वृक: । नित्याद्रायो अमंहत ॥
स्वर रहित पद पाठदश । मह्यम् । पौतऽक्रतः । सहस्रा । दस्यवे । वृकः । नित्यात् । रायः । अमंहत ॥ ८.५६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 56; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(दस्यवे वृकः) घातक लुटेरे के लिये वृक के जैसे भयङ्कर व कठोर हृदय वाला (पौतक्रतः) पावन ज्ञान एवं पवित्र कर्मकर्ता धनवान् राजा आदि (नित्यात्) अपने निरन्तर बने रहने वाले (रायः) दान की दृष्टि से संगृहीत ऐश्वर्य में से (दशसहस्रा) दश सहस्र अर्थात् बहुत सा धन (माम्) मुझ स्तोता को (अमंहत) देता है॥२॥
भावार्थ - ऐश्वर्य-अधिपति, स्तोता-साधक को अपने कोश में से दें; दस्यु को नहीं। रायः=उसका कोष तो देने हेतु ही है॥२॥
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