ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 59/ मन्त्र 2
ऋषिः - सुपर्णः काण्वः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
नि॒ष्षिध्व॑री॒रोष॑धी॒राप॑ आस्ता॒मिन्द्रा॑वरुणा महि॒मान॒माश॑त । या सिस्र॑तू॒ रज॑सः पा॒रे अध्व॑नो॒ ययो॒: शत्रु॒र्नकि॒रादे॑व॒ ओह॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठनिः॒ऽसिध्व॑रीः । ओष॑धीः । आपः॑ । आ॒स्ता॒म् । इन्द्रा॑वरुणा । म॒हि॒मान॑म् । आ॒श॒त॒ । या । सिस्र॑तुः । रज॑सः । पा॒रे । अध्व॑नः । ययोः॑ । शत्रुः॑ । नकिः॑ । अदे॑वः । ओह॑ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
निष्षिध्वरीरोषधीराप आस्तामिन्द्रावरुणा महिमानमाशत । या सिस्रतू रजसः पारे अध्वनो ययो: शत्रुर्नकिरादेव ओहते ॥
स्वर रहित पद पाठनिःऽसिध्वरीः । ओषधीः । आपः । आस्ताम् । इन्द्रावरुणा । महिमानम् । आशत । या । सिस्रतुः । रजसः । पारे । अध्वनः । ययोः । शत्रुः । नकिः । अदेवः । ओहते ॥ ८.५९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 59; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(ओषधीः) उष्णता धारण करने वाले (निःषिध्वरीः) अमङ्गल के निषेध कर्म एवं उसे भस्म कर, मंगलकारी शक्ति के प्रतीक ओषधि पदार्थ एवं स्नेह के प्रतीक (आपः) व्यापक जल मनुष्य के जीवन-यज्ञ में (आस्ताम्) उपयुक्त स्थान पाएं व इस प्रकार (इन्द्रावरुणा) शक्ति, प्रेम तथा न्याय शक्तियाँ (महिमानम्) महत्त्व (आशत) प्राप्त करें। (या) जो ये दोनों शक्तियाँ (रजसः पारे अध्वनः) अन्धकार के पार विद्यमान प्रकाशमय मार्ग से (सिस्रतुः) आती हैं (ययोः) और जिनका शत्रु (न किः अत एव) कोई भी नहीं (ओहते) व्यवहार में आता है॥२॥
भावार्थ - मानव-जीवन के लिये उपयोगी सभी पदार्थों के मूल उष्णता दाहक गुण व शासक गुण हैं--इनके प्रतीक हैं इन्द्र व वरुण। ये दोनों शक्तियाँ जीवन में प्रकाश भी देती हैं। इनकी विपरीत शक्तियाँ व्यवहार साधक नहीं; अतः जीवन-यज्ञ में शक्ति, प्रेम और न्याय भावना का आह्वान करना ही अभीष्ट है॥२॥
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