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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 85/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कृष्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    नू मे॒ गिरो॑ नास॒त्याश्वि॑ना॒ प्राव॑तं यु॒वम् । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । मे॒ । गिरः॑ । ना॒स॒त्या॒ । अश्वि॑ना । प्र । अ॒व॒त॒म् । यु॒वम् । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू मे गिरो नासत्याश्विना प्रावतं युवम् । मध्व: सोमस्य पीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु । मे । गिरः । नासत्या । अश्विना । प्र । अवतम् । युवम् । मध्वः । सोमस्य । पीतये ॥ ८.८५.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 85; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (मध्वः) माधुर्य इत्यादि गुणयुक्त (सोमस्य) सोतव्य दिव्य आनन्द का (पीतये) उपभोग कराने हेतु (नासत्या) स्वकृत्य को सदा सम्पादित करने वाले (अश्विना) अश्व तुल्य वेग व बल गुणयुक्त प्राण एवं अपान (युवम्) दोनों (मे) मेरी (गिरः) वाणी को (अवतम्) कायम रखें॥९॥

    भावार्थ - यदि प्राण व अपान से गुणकीर्तन करने वाले उपासक की वाणी बलवान् रहेगी तो वह प्रभु का सतत गुणकीर्तन करता रहेगा और इस तरह दिव्य आनन्द पा सकेगा॥९॥ अष्टम मण्डल में पच्चासीवाँ सूक्त व आठवाँ वर्ग समाप्त॥

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