ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 127/ मन्त्र 3
स हि पु॒रू चि॒दोज॑सा वि॒रुक्म॑ता॒ दीद्या॑नो॒ भव॑ति द्रुहन्त॒रः प॑र॒शुर्न द्रु॑हन्त॒रः। वी॒ळु चि॒द्यस्य॒ समृ॑तौ॒ श्रुव॒द्वने॑व॒ यत्स्थि॒रम्। नि॒:षह॑माणो यमते॒ नाय॑ते धन्वा॒सहा॒ नाय॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठसः । हि । पु॒रु । चि॒त् । ओज॑सा । वि॒रुक्म॑ता । दीद्या॑नः । भव॑ति । द्रु॒ह॒म्ऽत॒रः । प॒र॒शुः । न । द्रु॒ह॒न्त॒रः । वी॒ळु । चि॒त् । यस्य॑ । सम्ऽऋ॑तौ । श्रुव॑त् । वना॑ऽइव । यत् । स्थि॒रम् । निः॒ऽसह॑माणः । य॒म॒ते॒ । न । अ॒य॒ते॒ । ध॒न्व॒ऽसहा॑ । न । अ॒य॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स हि पुरू चिदोजसा विरुक्मता दीद्यानो भवति द्रुहन्तरः परशुर्न द्रुहन्तरः। वीळु चिद्यस्य समृतौ श्रुवद्वनेव यत्स्थिरम्। नि:षहमाणो यमते नायते धन्वासहा नायते ॥
स्वर रहित पद पाठसः। हि। पुरु। चित्। ओजसा। विरुक्मता। दीद्यानः। भवति। द्रुहम्ऽतरः। परशुः। न। द्रुहन्तरः। वीळु। चित्। यस्य। सम्ऽऋतौ। श्रुवत्। वनाऽइव। यत्। स्थिरम्। निःऽसहमाणः। यमते। न। अयते। धन्वऽसहा। न। अयते ॥ १.१२७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 127; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
विषय - द्रुहन्त का अ-पलायन
पदार्थ -
१. (सः) = वह अग्नि [गत मन्त्र के अनुसार प्रभु के उपासन से 'शोचिष्केश व वृषण' बननेवाला] (हि) = निश्चय से (विरुक्मता) = विशेषरूप से दीप्त होनेवाले (ओजसा) = ओज से (पुरुचित्) = अत्यधिक (दीद्यानः) = चमकता हुआ (द्रुहन्तरः) = हमारी जिघांसावाले काम - क्रोधादि शत्रुओं को तैर जानेवाला (भवति) = होता है । (न) = जैसे (परशः) = एक कुल्हाड़ा वृक्षों का छेदन करनेवाला होता है, इसी प्रकार यह अग्नि (द्रुहन्तरः) = इन जिर्षासुओं को समाप्त करनेवाला होता है । २. यह अग्नि वह है (यस्य) = जिसका (समृती) = आक्रमण होने पर (वीलुचित्) = दृढ़-से-दृढ़ वासनाएँ भी (श्रुवत्) = शीर्ण हो जाती हैं । (वना इव) = वनों की भाँति (यत् स्थिरम्) = जो दृढमूल भी वासनाएँ हैं उन्हें (निः षहमाणः) = पूर्णरूप से पराभूत करता हुआ (यमते) = यह उन वासनाओं का नियमन करता है अथवा उनका उच्छेद करता हुआ क्रीड़ा करता है[यम् - उपरम - क्रीड़ा], (न अयते) = [न पलायते] यह इस संग्राम में पराजित होकर भागता नहीं। (धन्वासहा न) = एक धनुर्धारी की भौति (अयते) = यह संग्राम में गति करता है । एक धनुर्धर लक्ष्यवेध करता हुआ संग्राम में इधर - उधर गतिवाला होता है, इसी प्रकार यह अग्नि भी कामादि शत्रुओं का संहार करता हुआ गति करता है।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु का उपासक देदीप्यमान तेज से चमकता हुआ कामादि का पराजय करता है, इनसे संग्राम करता हुआ कभी कायर नहीं बनता, अपितु युद्ध - क्रीड़ा में वीरता के साथ इनका नियमन करता है ।
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