ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - सूर्यः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
उदु॒ त्यं जा॒तवे॑दसं दे॒वं व॑हन्ति के॒तवः॑ । दृ॒शे विश्वा॑य॒ सूर्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ऊँ॒ इति॑ । त्यम् । जा॒तऽवे॑दसम् । दे॒वम् । व॒ह॒न्ति॒ । के॒तवः॑ । दृ॒शे । विश्वा॑य । सूर्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः । दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ऊँ इति । त्यम् । जातवेदसम् । देवम् । वहन्ति । केतवः । दृशे । विश्वाय । सूर्यम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
विषय - सूर्योदय
पदार्थ -
१. (केतवः) = प्रकाशक रश्मियाँ - प्रकाश के द्वारा मार्ग को दिखानेवाली सूर्यकिरणें (विश्वाय दृशे) = सम्पूर्ण पदार्थों के दर्शन के लिए, अर्थात् 'सब पदार्थ ठीक रूप में दिख सकें' इस प्रयोजन से (उ) = निश्चय से (त्यम्) = उस (सूर्यम्) = सूर्य को (उद्वहन्ति) = आकाश में ऊपर धारण करती हैं, जो सूर्य (जातवेदसम्) = सब प्रज्ञानों व धनों को प्राप्त करानेवाला है तथा (देवम्) = प्रकाश से देदीप्यमान होता हुआ [दिव् - द्युति] सम्पूर्ण प्राणशक्ति को देनेवाला है [देव - दानात्] । २. सूर्य जातवेदस् है - सम्पूर्ण धनों व ज्ञानों का स्रोत है । सूर्य किरणें ही पृथिवी में उत्पादन - शक्ति की वृद्धि का कारण हैं । इस उत्पादन - शक्ति से पृथिवी सब वनस्पति - ओषधियों को जन्म देती हुई 'वसुन्धरा' कहलाती है । वसुन्धरा को यह सूर्य ही वसुओं का धारण करनेवाली बनाता है । इस प्रकार वस्तुतः ही सूर्य 'जातवेदस्' है । प्रकाश को देनेवाला यह सूर्य 'जातवेदस्' तो है ही । ३. यह सूर्य 'देव' है, देदीप्यमान होता हुआ प्रकाश व प्राणशक्ति को देनेवाला है । इस सूर्य के रथ को ये किरणरूप अश्व आकाश में आगे और आगे ले - चलते हैं और सम्पूर्ण संसार के पदार्थों को प्रकाशित करते हैं ।
भावार्थ -
भावार्थ - सूर्योदय से प्रकाश, ओषधियाँ, प्राणशक्ति एवं सकल पदार्थ प्राप्त होते हैं ।
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