ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 11/ मन्त्र 1
वृषा॒ वृष्णे॑ दुदुहे॒ दोह॑सा दि॒वः पयां॑सि य॒ह्वो अदि॑ते॒रदा॑भ्यः । विश्वं॒ स वे॑द॒ वरु॑णो॒ यथा॑ धि॒या स य॒ज्ञियो॑ यजतु य॒ज्ञियाँ॑ ऋ॒तून् ॥
स्वर सहित पद पाठवृषा॑ । वृष्णे॑ । दु॒दु॒हे॒ । दोह॑सा । दि॒वः । पयां॑सि । य॒ह्वः । अदि॑तेः । अदा॑भ्यः । विश्व॑म् । सः । वे॒द॒ । वरु॑णः । यथा॑ । धि॒या । सः । य॒ज्ञियः॑ । य॒ज॒तु॒ । य॒ज्ञिया॑न् । ऋ॒तून् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषा वृष्णे दुदुहे दोहसा दिवः पयांसि यह्वो अदितेरदाभ्यः । विश्वं स वेद वरुणो यथा धिया स यज्ञियो यजतु यज्ञियाँ ऋतून् ॥
स्वर रहित पद पाठवृषा । वृष्णे । दुदुहे । दोहसा । दिवः । पयांसि । यह्वः । अदितेः । अदाभ्यः । विश्वम् । सः । वेद । वरुणः । यथा । धिया । सः । यज्ञियः । यजतु । यज्ञियान् । ऋतून् ॥ १०.११.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
विषय - यज्ञ और वर्षा
पदार्थ -
[१] प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि 'आंगि' [अगि गतौ] क्रियाशील व्यक्ति है जो कि (हविर्धान:) = हवि का धारण करनेवाला है, यज्ञ करके यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाला है । यह इस बात को समझता है कि (वृषा) = वृष्टि का करनेवाला वह प्रभु (यह्वः) = महान् है [यह इति महतो नामधेयम्] अथवा 'यातश्च हूतश्च' वे प्रभु जाने जाते हैं और पुकारे जाते हैं। अर्थात् जब मनुष्य संसार में अन्य शरण को नहीं देखता, उस समय प्रभु का ही सहारा ढूँढ़ता है और प्रभु की ही ओर जाता है और उसे पुकारता है। वे प्रभु ('अदाभ्यः') = अहिंसित हैं, अपने कार्यों के अन्दर किसी से पराभूत नहीं होते । वे ‘वृषा-यह्व व अदाभ्य' प्रभु (दिवः दोहसा) = द्युलोक के दोहन से (वृष्णे) = औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाले, स्वार्थ से ऊपर उठे हुए यज्ञशील पुरुष के लिये (अदितेः) = अखण्डित याग क्रिया से, अर्थात् निरन्तर यज्ञादि के द्वारा (पयांसि) = जलों का (दुदुहे) = दोहन व पूरण करते हैं । द्युलोक रूप गौ को प्रभु दोहते हैं, उस दोहन से वृष्टिजल रूप दूध प्राप्त होता है । [२] वस्तुतः (वरुणः) = हमारे सब कष्टों का निवारण करनेवाले (स) = वे प्रभु (यथा) = क्योंकि (धिया) = ज्ञानपूर्वक कर्मों से (विश्वम्) = सब आवश्यक पदार्थों को वेद प्राप्त कराते हैं । इसलिए (स) = वह (यज्ञियः) = यज्ञशील पुरुष (यज्ञियान् क्रतून्) = यज्ञ करने योग्य ऋतुओं का लक्ष्य करके (यजतु) = यज्ञ करे । प्रभु प्रार्थना को पुरुषार्थ के उपरान्त ही सुनते हैं । अर्थात् प्रार्थना ही करते जाएँ और पुरुषार्थ न करें तो वह प्रार्थना व्यर्थ ही जाती है। सो हम कर्मशील बनें। कर्म भी समझदारी से करने चाहिएँ । 'धिया' शब्द ज्ञान व कर्म का वाचक होकर 'समझदारी से ही कर्मों के करने का संकेत कर रहा है। समझदारी से कर्म करने का अभिप्राय यही है कि ऋतु व समय के अनुसार कर्म किया जाए। [३] सब से बड़ी बुद्धिमत्ता यही है कि मनुष्य अत्यन्त स्वार्थी बनकर अपने मुख में ही आहुति न देता रहे । 'स्वेषु आस्येषु जुह्वत: चेरुः'=अपने ही मुखों में आहुति देनेवाले तो असुर हो जाते हैं। हम असुर न बनकर 'देव' बनें। देव 'वृषा' होते हैं, औरों पर सुखों का वर्षण करनेवाले होते हैं। इस वृषा के लिये प्रभु ही वर्षण करते हैं, और सब अन्नादि ठीक उत्पन्न होते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- हम ऋतुओं के अनुसार यज्ञ करनेवाले बनें। यह यज्ञक्रिया 'अदिति' हो, अखण्डित हो। हमारे यज्ञ प्रतिदिन नियमितरूप से चलें ।
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