ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 11/ मन्त्र 9
श्रु॒धी नो॑ अग्ने॒ सद॑ने स॒धस्थे॑ यु॒क्ष्वा रथ॑म॒मृत॑स्य द्रवि॒त्नुम् । आ नो॑ वह॒ रोद॑सी दे॒वपु॑त्रे॒ माकि॑र्दे॒वाना॒मप॑ भूरि॒ह स्या॑: ॥
स्वर सहित पद पाठश्रु॒धि । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । सद॑ने । स॒धऽस्थे॑ । यु॒क्ष्व । रथ॑म् । अ॒मृत॑स्य । द्र॒वि॒त्नुम् । आ । नः॒ । व॒ह॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । दे॒वपु॑त्रे॒ इति॑ दे॒वऽपु॑त्रे । माकिः॑ । दे॒वाना॑म् । अप॑ । भूः॒ । इ॒ह । स्याः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रुधी नो अग्ने सदने सधस्थे युक्ष्वा रथममृतस्य द्रवित्नुम् । आ नो वह रोदसी देवपुत्रे माकिर्देवानामप भूरिह स्या: ॥
स्वर रहित पद पाठश्रुधि । नः । अग्ने । सदने । सधऽस्थे । युक्ष्व । रथम् । अमृतस्य । द्रवित्नुम् । आ । नः । वह । रोदसी इति । देवपुत्रे इति देवऽपुत्रे । माकिः । देवानाम् । अप । भूः । इह । स्याः ॥ १०.११.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 11; मन्त्र » 9
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
विषय - प्रभु की प्रेरणा
पदार्थ -
[१] प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (अग्ने) = प्रगतिशील जीव ! तू (सदने) = इस शरीर रूप गृह में (सधस्थे) = मिल करके बैठने के स्थान हृदय में (नः श्रुधी) = हमारी बात को सुन । अर्थात् हृदय सधस्थ है, वहाँ आत्मा व परमात्मा दोनों ही का निवास है । हृदयस्थ प्रभु जीव को सदा प्रेरणा देते हैं । जीव को चाहिए कि उस प्रेरणा को सुने। प्रेरणा को सुनने में ही उसका कल्याण है । [२] प्रभु विशेष रूप से कहते हैं कि (रथं युक्ष्वा) = तू अपने रथ को जोत । यह तेरा रथ खड़ा ही न रह जाए। अर्थात् तू सदा क्रियाशील हो । [३] (अमृतस्य द्रवित्नुम्) = यह तेरा रथ अमृत का द्रावक हो। अर्थात् तू सदा मधुर शब्दों का ही बोलनेवाला हो, तेरा सारा व्यवहार ही मधुर हो । [४] (न:) = हमारे (रोदसी) = द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को आवह सब प्रकार से धारण करनेवाला हो। तेरा शरीर स्वस्थ हो और मस्तिष्क दीप्त हो। ये तेरा शरीर व मस्तिष्क 'देवपुत्रे' हों, दिव्यगुणों के द्वारा अपने को पवित्र रखनेवाले व सुरक्षित करनेवाले हों [देवैः पुनाति त्रायते] [५] (इह) = तू अपने इस जीवन में (देवानाम्) = दिव्य गुण-सम्पन्न विद्वानों का (अपभूः) = निरादर करनेवाला व अपने से दूर करनेवाला (माकिः स्याः) = मत हो । अर्थात् तू सदा सत्संग करनेवाला हो ।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु की प्रेरणा को सुनें। प्रभु प्रेरणा दे रहे हैं कि - [क] क्रियाशील बनो, [ख] तुम्हारी वाणी व व्यवहार अमृत तुल्य हो, [ग] शरीर व मस्तिष्क को उत्तम बनाओ, [घ] सदा सत्संग की रुचि वाले बनो । सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से हुआ है कि हम ऋतुओं के अनुसार यज्ञ करनेवाले बनें - [१] हम साधन व वेदज्ञान को अपनाएँ, [२] हमारा प्रत्येक उषाकाल भद्र हो, [३] हम प्रभु का वरण करनेवाले आर्य बनें, [४] शाकाहारी व लोकहितकारी बनकर प्रभु को पाने के अधिकारी हों, [५] हृदयस्थ प्रभु की वाणी को सुनें, [६] प्रेरणा को सुनकर ज्ञानवान् व बलवान् बनें, [७] ज्ञान के परिणाम स्वरूप हमारा परस्पर मेल हो, [८] हम सदा सत्संग में रुचि वाले हों, [९] ऋत व सत्य को अपनाकर शरीर व मस्तिक को सुन्दर बनायें ।
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