ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 116/ मन्त्र 2
ऋषिः - अग्नियुतः स्थौरोऽग्नियूपो वा स्थौरः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒स्य पि॑ब क्षु॒मत॒: प्रस्थि॑त॒स्येन्द्र॒ सोम॑स्य॒ वर॒मा सु॒तस्य॑ । स्व॒स्ति॒दा मन॑सा मादयस्वार्वाची॒नो रे॒वते॒ सौभ॑गाय ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्य । पि॒ब॒ । क्षु॒ऽमतः॑ । प्रऽस्थि॑तस्य । इन्द्र॑ । सोम॑स्य । वर॑म् । आ । सु॒तस्य॑ । स्व॒स्ति॒ऽदाः । मन॑सा । मा॒द॒य॒स्व॒ । अ॒र्वा॒ची॒नः । रे॒वते॑ । सौभ॑गाय ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य पिब क्षुमत: प्रस्थितस्येन्द्र सोमस्य वरमा सुतस्य । स्वस्तिदा मनसा मादयस्वार्वाचीनो रेवते सौभगाय ॥
स्वर रहित पद पाठअस्य । पिब । क्षुऽमतः । प्रऽस्थितस्य । इन्द्र । सोमस्य । वरम् । आ । सुतस्य । स्वस्तिऽदाः । मनसा । मादयस्व । अर्वाचीनः । रेवते । सौभगाय ॥ १०.११६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 116; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
विषय - सोमपान से 'समृद्धि व सौभाग्य'
पदार्थ -
[१] (अस्य) = इस (क्षुमत:) = [क्षु = food] हविरूप अन्नवाले, अर्थात् जिसका उत्पादन दानपूर्वक अदन से ही हुआ है [ हु दानाद नयोः], उस (प्रस्थितस्य) = शरीर में विशेषरूप से स्थित सोमस्य सोम का, वीर्यशक्ति का हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (पिब) = तू पान कर। (आ सुतस्य) = जो सोम सब ओर उत्पन्न किया जाता है उस सोम के (वरम्) = वरणीय भाग को तू पीनेवाला बन। यह सोम तो सचमुच वरणीय ही वरणीय है । [२] इस सोम को शरीर में ही व्याप्त करने से (स्वस्तिदा:) = यह कल्याण का देनेवाला होता है। इसका पान करके तू (मनसा मादयस्व) = मन से आनन्द का अनुभव कर । सोमरक्षण से जीवन उल्लासमय बनता है । (अर्वाचीनः) = [अर्वाङ् अञ्चति] शरीर के अन्दर ही गति करनेवाला यह सोम (रेवते) = ऐश्वर्यौवाले (सौभगाय) = सौभाग्य के लिए होता है। अर्थात् सोमरक्षण मनुष्य को ऐश्वर्य प्राप्ति के योग्य तथा सौभाग्यशाली बनाता है, इस सोमपान करनेवाले का जीवन [place, planty of prospeity] समृद्धि व सौभाग्यवाला होता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम सोम का रक्षण करें। यह हमें कल्याण को प्राप्त करायेगा और हमारे जीवन की समृद्धि, सौभाग्य-सम्पन्न बनाएगा ।
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