ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 135/ मन्त्र 1
यस्मि॑न्वृ॒क्षे सु॑पला॒शे दे॒वैः स॒म्पिब॑ते य॒मः । अत्रा॑ नो वि॒श्पति॑: पि॒ता पु॑रा॒णाँ अनु॑ वेनति ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । वृ॒क्षे । सु॒ऽप॒ला॒शे । दे॒वैः । स॒म्ऽपिब॑ते । य॒मः । अत्र॑ । नः॒ । वि॒श्पतिः॑ । पि॒ता । पु॒रा॒णान् । अनु॑ । वे॒न॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्वृक्षे सुपलाशे देवैः सम्पिबते यमः । अत्रा नो विश्पति: पिता पुराणाँ अनु वेनति ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । वृक्षे । सुऽपलाशे । देवैः । सम्ऽपिबते । यमः । अत्र । नः । विश्पतिः । पिता । पुराणान् । अनु । वेनति ॥ १०.१३५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 135; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
विषय - इस सुपलाश वृक्ष पर
पदार्थ -
[१] यह संसार एक वृक्ष है, इसका एक-एक पत्ता चमकता है, यह हमें अपनी ओर आकृष्ट करता है। हमें इस संसारवृक्ष में उलझना नहीं। इसके फलों के खाने में ही स्वाद नहीं लेने लग जाना । (यस्मिन्) = जिस (सुपलाशे) = उत्तम पत्तोंवाले (वृक्षे) = इस संसार वृक्ष में (यमः) = अपने जीवन को नियम में चलानेवाला व्यक्ति (देवैः) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के हेतु से (सम्पिबते) = सोम का पान करता है, वीर्य को शरीर में ही सुरक्षित रखता है। वस्तुतः सोम का शरीर में सुरक्षित रखना ही शरीर को ठीक बना के रखने का साधन है । सोम के रक्षण के होने पर शरीर बड़ी उमरवाला होता हुआ भी [पुरा अपि नव:- पुराण:] नवीन -सा बना रहता है। यह व्यक्ति 'सनत् कुमार' बना रहता है । [२] (अत्रा) = ऐसा होने पर (नः) = हमारा (विश्पतिः) = प्रजाओं का स्वामी पिता रक्षक प्रभु (पुराणान्) = 'पुरापि नवीन्' इन बड़ी उमर के भी नवीन, अजीर्ण-शीर्ण शरीरवालों को (अनुवेनति) = चाहते हैं। ये व्यक्ति प्रभु के प्रिय होते हैं। यह स्वाभाविक बात है, हमने प्रभु के दिये हुए शरीर को बड़ा ठीक रख करके प्रभु का वास्तविक पूजन किया है । सो हम प्रभु के प्रिय क्यों न होंगे?
भावार्थ - भावार्थ - भोगमार्ग पर न जाकर यदि हम सोम का रक्षण करें तो शरीर जीर्ण नहीं होता और हम प्रभु के प्रिय होंगे।
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