ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 152/ मन्त्र 1
ऋषिः - शासो भारद्वाजः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
शा॒स इ॒त्था म॒हाँ अ॑स्यमित्रखा॒दो अद्भु॑तः । न यस्य॑ ह॒न्यते॒ सखा॒ न जीय॑ते॒ कदा॑ च॒न ॥
स्वर सहित पद पाठशा॒सः । इ॒त्था । म॒हान् । अ॒सि॒ । अ॒मि॒त्र॒ऽखा॒दः । अद्भु॑तः । न । यस्य॑ । ह॒न्यते॑ । सखा॑ । न । जीय॑ते । कदा॑ । च॒न ॥
स्वर रहित मन्त्र
शास इत्था महाँ अस्यमित्रखादो अद्भुतः । न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदा चन ॥
स्वर रहित पद पाठशासः । इत्था । महान् । असि । अमित्रऽखादः । अद्भुतः । न । यस्य । हन्यते । सखा । न । जीयते । कदा । चन ॥ १०.१५२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 152; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
विषय - शासक
पदार्थ -
[१] हे जीव ! तू (शासः) = अपनी इन्द्रियों, मन व बुद्धि पर शासन करनेवाला होता है। (इत्था) = इस प्रकार शासन करनेवाला बनकर तू (महान् असि) = महान् होता है, आदरणीय बनता है, तू बड़ा होता है। (अमित्रखादः) = शत्रुओं को खा जानेवाला, अर्थात् काम-क्रोध आदि को समाप्त करनेवाला होता है और (अद्भुतः) = शत्रुओं को समाप्त करके आश्चर्यभूत जीवनवाला होता है । सुन्दरतम जीवन यही तो है, जिसमें कि हम काम-क्रोध-लोभ को समाप्त करके स्वस्थ शरीर, मन व बुद्धिवाले बनते हैं । [२] इन काम-क्रोध-लोभ आदि से पराजित वही मनुष्य होता है, जो कि अपने सच्चे मित्र प्रभु से अलग हो जाता है। प्रभु को भूल जाना ही हमारे लिये प्रभु का समाप्त हो जाना है । (यस्य सखा न हन्यते) = जिसका यह प्रभुरूप मित्र समाप्त नहीं होता वह व्यक्ति (कदाचन) = कभी भी (न जीयते) = पराजित नहीं होता। उसे काम-क्रोध आदि कभी अभिभूत नहीं कर पाते ।
भावार्थ - भावार्थ - हम शासक बनें, इन्द्रियों को वश में रखते हुए काम आदि को समाप्त करनेवाले हों । प्रभुरूप मित्र से कभी अलग न हों। इसके सम्पर्क में रहने पर हम कभी पराजित न होंगे।
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