ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 159/ मन्त्र 1
ऋषिः - शची पौलोमी
देवता - शची पौलोमी
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
उद॒सौ सूर्यो॑ अगा॒दुद॒यं मा॑म॒को भग॑: । अ॒हं तद्वि॑द्व॒ला पति॑म॒भ्य॑साक्षि विषास॒हिः ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । अ॒सौ । सूर्यः॑ । अ॒गा॒त् । उत् । अ॒यम् । मा॒म॒कः । भगः॑ । अ॒हम् । तत् । वि॒द्व॒ला । पति॑म् । अ॒भि । आ॒सा॒क्षि॒ । वि॒ऽस॒स॒हिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदसौ सूर्यो अगादुदयं मामको भग: । अहं तद्विद्वला पतिमभ्यसाक्षि विषासहिः ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । असौ । सूर्यः । अगात् । उत् । अयम् । मामकः । भगः । अहम् । तत् । विद्वला । पतिम् । अभि । आसाक्षि । विऽससहिः ॥ १०.१५९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 159; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
विषय - भग का उदय
पदार्थ -
[१] (असौ सूर्य:) = वह सूर्य (उद् अगात्) = उदित हुआ है। इसी प्रकार (मामकः) = मेरा (अयं भगः) = यह भग [ऐश्वर्य] भी (उद्) = उदित हुआ है। सूर्योदय के साथ मेरे भग का उदय होता है। सूर्य की तरह मेरा ज्ञान का ऐश्वर्य भी चमक उठता है। [२] (तत्) = तब [ then ] (अहम्) = मैं (पतिं विद्वला) = उस प्रभु रूप पति को जानती हुई (अभ्यसाक्षि) = शत्रुओं का पराभव करती हूँ। मैं इस प्रकार (विषासहि:) = विशेषरूप से शत्रुओं का मर्षण करनेवाली होती हूँ । काम-क्रोध आदि अन्तः शत्रुओं का पराभव किये बिना प्रभु की प्राप्ति का व ज्ञानैश्वर्य के उदय का सम्भव नहीं है इस ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त करनेवाली माता ही 'शची' है। यही 'जयन्त' सन्तानों को जन्म दे पाती है ।
भावार्थ - भावार्थ - ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त करनेवाली माता ही प्रभु का दर्शन करती है और काम-क्रोध आदि का मर्षण करती है।
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