साइडबार
ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 176/ मन्त्र 4
अ॒यम॒ग्निरु॑रुष्यत्य॒मृता॑दिव॒ जन्म॑नः । सह॑सश्चि॒त्सही॑यान्दे॒वो जी॒वात॑वे कृ॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । अ॒ग्निः । उ॒रु॒ष्य॒ति॒ । अ॒मृता॑त्ऽइव । जन्म॑नः । सह॑सः । चि॒त् । सही॑यान् । दे॒वः । जी॒वात॑वे । कृ॒तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयमग्निरुरुष्यत्यमृतादिव जन्मनः । सहसश्चित्सहीयान्देवो जीवातवे कृतः ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । अग्निः । उरुष्यति । अमृतात्ऽइव । जन्मनः । सहसः । चित् । सहीयान् । देवः । जीवातवे । कृतः ॥ १०.१७६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 176; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
विषय - प्रभु का रक्षण
पदार्थ -
[१] (अयम्) = यह (अग्निः) = अग्रेणी प्रभु (अमृतात् इव) = जैसे अमृतत्व की प्राप्ति के हेतु से उसी प्रकार (जन्मनः) = शक्तियों के विकास के हेतु से (उरुष्यति) = रक्षण करते हैं । प्रभु के रक्षण के प्राप्त होने पर मनुष्य अपनी शक्तियों का विकास करता हुआ अन्ततः अमृतत्व को, मोक्ष को प्राप्त करता है। यहाँ सायणाचार्य के अनुसार 'अमृतात्' का अर्थ 'देवों से' तथा 'जन्मनः' का अर्थ 'प्राणियों से' है। उसका भाव यह है कि प्रभु का रक्षण हमें आधिदैविक व आधिभौतिक आपत्तियों से बचाता है। [२] वे (देवः) = प्रकाशमय प्रभु (सहसः चित्) = बलवान् से भी (सहीयान्) = बलवत्तर हैं । वे प्रभु (जीवातवे) = जीवनौषध के लिये (कृतः) = किये जाते हैं । अर्थात् जो प्रभु का धारण करता है, वह अपने जीवन को नीरोग बना पाता है । प्रभु-भक्त का जीवन शरीर के दृष्टिकोण से नीरोग होता है और मन के दृष्टिकोण से वासनाशून्य व निर्मल ।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु हमारे रक्षक हैं। प्रभु के हृदय में धारण करने से जीवन नीरोग व निर्मल बनता है । यह सूक्त प्रभु - दर्शन के साधनों व लाभों का वर्णन करता है। इन साधनों का प्रयोग करनेवाला व्यक्ति उस प्रजापति परमात्मा को प्राप्त करने से 'प्राजापत्य' होता है, यह नाना योनियों में गति करता हुआ प्रभु को प्राप्त करने से 'पतङ्ग' है [पतन् गच्छति] । यह 'पतङ्ग प्राजापत्य' अगले सूक्त का ऋषि है। चित्रण करते हुए कहते हैं कि-
इस भाष्य को एडिट करें