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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 179/ मन्त्र 1
उत्ति॑ष्ठ॒ताव॑ पश्य॒तेन्द्र॑स्य भा॒गमृ॒त्विय॑म् । यदि॑ श्रा॒तो जु॒होत॑न॒ यद्यश्रा॑तो मम॒त्तन॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ति॒ष्ठ॒त॒ । अव॑ । प॒श्य॒त॒ । इन्द्र॑स्य । भा॒गम् । ऋ॒त्विय॑म् । यदि॑ । श्रा॒तः । जु॒होत॑न । यदि॑ । अश्रा॑तः । म॒म॒त्तन॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तिष्ठताव पश्यतेन्द्रस्य भागमृत्वियम् । यदि श्रातो जुहोतन यद्यश्रातो ममत्तन ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । तिष्ठत । अव । पश्यत । इन्द्रस्य । भागम् । ऋत्वियम् । यदि । श्रातः । जुहोतन । यदि । अश्रातः । ममत्तन ॥ १०.१७९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 179; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 37; मन्त्र » 1
विषय - शिवि औशीनर
पदार्थ -
[१] 'श्यति पापं इति शिविः 'पाप को नष्ट करनेवाला शिवि है। 'औशीनर' वह है जो कि कान्त मनोवृत्तिवालों में अगुआ बनता है [ वश कान्तौ] पाप को नष्ट करके सुन्दर मनोवृत्तिवाला पुरुष प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि है, ऐसा बन सकने के लिये प्रभु कहते हैं कि (उत्तिष्ठत) = उठो, आलस्य को छोड़ो, लेटे ही न रहो। अवपश्यत अपने अन्दर देखनेवाले बनो। अपनी कमियों को देखकर उन्हें दूर करनेवाले बनो। और (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के (ऋत्वियम्) = समय पर प्राप्त समयानुकूल (भागम्) = कर्त्तव्यभाग को देखनेवाले बनो। जो तुम्हारा प्रस्तुत कर्त्तव्य है, उसे देखकर उसके पालन में तत्पर होवो । वस्तुतः जीवन के प्रथमाश्रम में 'ज्ञान प्राप्ति' ही मुख्य कर्त्तव्य है । जितेन्द्रिय बनकर ज्ञान प्राप्ति में लगे रहना ही ब्रह्मचारी का कर्त्तव्य है । [२] (यदि श्रातः) = अगर आचार्य अनुभव करे कि उसका ब्रह्मचारी ज्ञान परिपक्व हो गया है, तो आचार्य (जुहोतन) = उनकी आहुति दे दें, उन्हें गृहस्थ-यज्ञ में प्रवेश की स्वीकृति दे दें। पर यदि अगर (अश्रातः) = वह ज्ञान - परिपक्व नहीं हुआ तो (ममत्तन) = प्रसन्नतापूर्वक रुके रहें । गृहस्थ में तभी जाना ठीक है कि यदि अपने ज्ञान की कुछ परिपक्वता का अनुभव हो । जितेन्द्रिय बनकर शक्ति व ज्ञान का सञ्चय करनेवाला ही गृहस्थ में प्रवेश करे ।
भावार्थ - भावार्थ - उठो, अपनी कमियों को दूर करो। इस ब्रह्मचर्याश्रम में अपने को ज्ञान - परिपक्व करके गृहस्थ होने की तैयारी करो ।
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