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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 187 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 187/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वत्स आग्नेयः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्राग्नये॒ वाच॑मीरय वृष॒भाय॑ क्षिती॒नाम् । स न॑: पर्ष॒दति॒ द्विष॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । अ॒ग्नये॑ । वाच॑म् । ई॒र॒य॒ । वृ॒ष॒भाय॑ । क्षि॒ती॒नाम् । सः । नः॒ । प॒र्ष॒त् । अति॑ । द्विषः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राग्नये वाचमीरय वृषभाय क्षितीनाम् । स न: पर्षदति द्विष: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । अग्नये । वाचम् । ईरय । वृषभाय । क्षितीनाम् । सः । नः । पर्षत् । अति । द्विषः ॥ १०.१८७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 187; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 45; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (अग्नये) = उस अग्रेणी प्रभु के लिये (वाचम्) = स्तुति वचनों को (प्र ईरय) = प्रकर्षेण उच्चरित कर, उस प्रभु का खूब ही स्तवन कर। जो प्रभु (क्षितीनाम्) = [क्षि निवासगत्योः] गतिशील बनकर अपने निवास को उत्तम बनानेवाले मनुष्यों के लिये (वृषभाय) = सुखों का वर्षण करनेवाले हैं। वस्तुतः प्रभु-स्तवन ही उनके जीवन को उत्तम बनाता है । [२] (सः) = वे प्रभु (नः) = हमें (द्विषः) = द्वेष की भावनाओं से (अतिपर्षत्) = पार पहुँचानेवाले हों । प्रभु का स्मरण मनुष्य को द्वेष से ऊपर उठाता है प्रभु को सर्वत्र देखनेवाला किसी से द्वेष कर ही कैसे सकता है ?

    भावार्थ - भावार्थ - प्रभु-स्तवन हमें द्वेष से दूर करे।

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