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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 188/ मन्त्र 1
प्र नू॒नं जा॒तवे॑दस॒मश्वं॑ हिनोत वा॒जिन॑म् । इ॒दं नो॑ ब॒र्हिरा॒सदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । नू॒नम् । जा॒तऽवे॑दसम् । अश्व॑म् । हि॒नो॒त॒ । वा॒जिन॑म् । इ॒दम् । नः॒ । ब॒र्हिः । आ॒ऽसदे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र नूनं जातवेदसमश्वं हिनोत वाजिनम् । इदं नो बर्हिरासदे ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । नूनम् । जातऽवेदसम् । अश्वम् । हिनोत । वाजिनम् । इदम् । नः । बर्हिः । आऽसदे ॥ १०.१८८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 188; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 46; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 46; मन्त्र » 1
विषय - ज्ञान-कर्म-शक्ति
पदार्थ -
[१] (नूनम्) = निश्चय से उस प्रभु को (प्र हिनोत) = प्रकर्षेण प्रेरित करो, उस प्रभु से प्रार्थना करो, जो कि (जातवेदसम्) = [जाते जाते विद्यते] सर्वव्यापक हैं, [जातं जातं वेत्ति] सर्वज्ञ हैं अथवा [जातं वेदो अस्मात्] सम्पूर्ण धनों को जन्म देनेवाले हैं। (अश्वम्) = सर्वत्र व्याप्त हैं [अशू व्याप्तौ] । (वाजिनम्) = शक्तिशाली हैं । [२] (इदम्) = यह (नः) = हमारा (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय, जिसमें से सब वासनाओं को उखाड़ दिया गया है, वह हृदय (आसदे) = प्रभु के आसीन होने के लिये है । सर्वत्र व्यापकता के नाते सर्वत्र हैं, मेरे हृदय में भी है। उनको आसीन करने का भाव इतना ही है कि हम हृदय में प्रभु का दर्शन करें।
भावार्थ - भावार्थ- हम हृदय को प्रभु का आसन बनायें। प्रभु हमें ज्ञान देंगे, कर्मसामर्थ्य देंगे और शक्ति प्राप्त करायेंगे ।
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