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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 191 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 191/ मन्त्र 2
    ऋषिः - संवननः देवता - संज्ञानम् छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    सं ग॑च्छध्वं॒ सं व॑दध्वं॒ सं वो॒ मनां॑सि जानताम् । दे॒वा भा॒गं यथा॒ पूर्वे॑ संजाना॒ना उ॒पास॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । ग॒च्छ॒ध्व॒म् । सम् । व॒द॒ध्व॒म् । सम् । वः॒ । मनां॑सि । जा॒न॒ता॒म् । दे॒वाः । भा॒गम् । यथा॑ । पूर्वे॑ । स॒म्ऽजा॒ना॒नाः । उ॒प॒ऽआस॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् । देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । गच्छध्वम् । सम् । वदध्वम् । सम् । वः । मनांसि । जानताम् । देवाः । भागम् । यथा । पूर्वे । सम्ऽजानानाः । उपऽआसते ॥ १०.१९१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 191; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 49; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] प्रभु अपने पुत्रों को कहते हैं कि (संगच्छध्वम्) = परस्पर मिलकर के चलो। तुम्हारी गतियाँ परस्पर विरुद्ध न हों 'येन देवा न वियन्ति = देव परस्पर विरुद्ध गतिवाले नहीं होते । [२] (संवदध्वम्) = तुम परस्पर संवादवाले बनो । विवाद तो मूर्ख ही किया करते हैं, 'विद्या विवादाय' = मूर्खो की ही विद्या विवाद के लिये होती है । [३] (वः मनांसि) = तुम्हारे मन (संजानताम्) = संज्ञानवाले हों । तुम्हारे मनों में एक दूसरे के विरोधी विचार न उत्पन्न होते रहें। एक दूसरे के हित की भावनाएँ ही तुम्हारे मनों में स्थान पायें । 'नो च विद्विषते मिथः ' - ज्ञानी लोग परस्पर द्वेष नहीं करते। [४] (पूर्वे देवा:) = अपना पालन व पूरण करनेवाले देव (संजानाना:) = परस्पर संज्ञान व ऐकमत्यवाले होते हुए (यथा भागम्) = अपने-अपने भाग के अनुसार (उपासते) = कर्त्तव्य का उपासन करते हैं । इस प्रकार अपने-अपने कर्त्तव्यभाग को पूर्ण करते हुए वे समूचे कार्य को पूर्ण सफलता के साथ कर पाते हैं ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम अविरुद्ध गतिवाले, संवादवाले व संज्ञानवाले बनें। देवों की तरह अपने-अपने कर्त्तव्यभाग को परस्पर अविरोध के साथ पूर्ण करनेवाले हों ।

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