ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
अच्छा॑ म॒ इन्द्रं॑ म॒तय॑: स्व॒र्विद॑: स॒ध्रीची॒र्विश्वा॑ उश॒तीर॑नूषत । परि॑ ष्वजन्ते॒ जन॑यो॒ यथा॒ पतिं॒ मर्यं॒ न शु॒न्ध्युं म॒घवा॑नमू॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअच्छ॑ । मे॒ । इन्द्र॑म् । म॒तयः॑ । स्वः॒ऽविदः॑ । स॒ध्रीचीः॑ । विश्वाः॑ । उ॒श॒तीः । अ॒नू॒ष॒त॒ । परि॑ । स्व॒ज॒न्ते॒ । जन॑यः । यथा॑ । पति॑म् । मर्य॑म् । न । शु॒न्ध्युम् । म॒घऽवा॑नम् । ऊ॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा म इन्द्रं मतय: स्वर्विद: सध्रीचीर्विश्वा उशतीरनूषत । परि ष्वजन्ते जनयो यथा पतिं मर्यं न शुन्ध्युं मघवानमूतये ॥
स्वर रहित पद पाठअच्छ । मे । इन्द्रम् । मतयः । स्वःऽविदः । सध्रीचीः । विश्वाः । उशतीः । अनूषत । परि । स्वजन्ते । जनयः । यथा । पतिम् । मर्यम् । न । शुन्ध्युम् । मघऽवानम् । ऊतये ॥ १०.४३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 43; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु का आलिंगन
पदार्थ -
[१] गत सूक्त का ऋषि कृष्ण आंगिरस ही प्रार्थना करता है कि (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की (अच्छा) = ओर (स्वर्विदः) = प्रकाश को प्राप्त करनेवाली (मे) = मेरी (मतयः) = बुद्धियाँ प्रवृत्त हों (सध्रीची:) = उस प्रभु के साथ गति करनेवाली (विश्वाः) = प्रभु-स्तवन को ही व्याप्त करनेवाली (उशती:) = प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामनावाली ये मेरी बुद्धियाँ प्रभु को ही (अनूषत) = स्तुत करनेवाली हों । प्रभु-स्तवन में ही प्रकाश है। प्रभु से हम दूर होते हैं और अन्धकार में पहुँच जाते हैं । [२] (यथा न) = और जैसे [न च] (जनयः) = पत्नियाँ (शुन्ध्युं मर्यं) = पतिम् शुद्ध जीवनवाले मनुष्य पति को (परिष्वजन्ते) = आलिंगन करती हैं उसी प्रकार मेरी बुद्धियाँ उस (मघवानम्) = सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के स्वामी प्रभु का ऊतये रक्षण के लिये आलिंगन करनेवाली हों । अर्थात् मैं सदा प्रभु का स्मरण करनेवाला बनूँ, प्रभु स्मरणपूर्वक ही इस जीवन-संग्राम में चलने का यत्न करूँ। मेरी बुद्धियाँ सदा प्रभु के साथ हों [सध्रीची:], उसीके स्तवन का व्यापन करनेवाली हों [विश्वाः] प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामनावाली हों [उशती: ] ।
भावार्थ - भावार्थ- मेरा ध्यान प्रभु की ओर हो । सांसारिक क्रियाओं को करता हुआ मैं प्रभु को भूल न जाऊँ ।
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