ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
एक॑: समु॒द्रो ध॒रुणो॑ रयी॒णाम॒स्मद्धृ॒दो भूरि॑जन्मा॒ वि च॑ष्टे । सिष॒क्त्यूध॑र्नि॒ण्योरु॒पस्थ॒ उत्स॑स्य॒ मध्ये॒ निहि॑तं प॒दं वेः ॥
स्वर सहित पद पाठएकः॑ । स॒मु॒द्रः । ध॒रुणः॑ । र॒यी॒णाम् । अ॒स्मत् । हृ॒दः । भूरि॑ऽजन्मा । वि । च॒ष्टे॒ । सिस॑क्ति । ऊधः॑ । नि॒ण्योः । उ॒पऽस्थे॑ । उत्स॑स्य । मध्ये॑ । निऽहि॑तम् । प॒दम् । वेरिति॒ वेः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एक: समुद्रो धरुणो रयीणामस्मद्धृदो भूरिजन्मा वि चष्टे । सिषक्त्यूधर्निण्योरुपस्थ उत्सस्य मध्ये निहितं पदं वेः ॥
स्वर रहित पद पाठएकः । समुद्रः । धरुणः । रयीणाम् । अस्मत् । हृदः । भूरिऽजन्मा । वि । चष्टे । सिसक्ति । ऊधः । निण्योः । उपऽस्थे । उत्सस्य । मध्ये । निऽहितम् । पदम् । वेरिति वेः ॥ १०.५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
विषय - 'धनों के धरुण' प्रभु
पदार्थ -
(एक:) = वे प्रभु एक हैं, उन्हें अपने सृष्टि निर्माण आदि कार्यों के लिए किसी अन्य की सहायता की अपेक्षा नहीं । 'न तत्समोसत्य अभ्यधिकः कुतोऽन्य: ' = उनके समान भी कोई नहीं, अधिक का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अथवा वे प्रभु ( इ गतौ ) सारे ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले हैं । (समुद्रः) = वे सदा आनन्दमय हैं, हर्ष के साथ हैं। (रयीणां धरुणः) = सम्पूर्ण सम्पत्तियों के कोश व धारण करनेवाले हैं । वे (भूरिजन्मा) = अनन्त पदार्थों को जन्म देनेवाले प्रभु (अस्मत्) = हमारे (हृदः) = हृदयों को (विचष्टे) = वारीकी से देख रहे हैं। हृदयों की अन्तःस्थित होते हुए वे हमारे हृदयों की सब बातों को जानते हैं । (निण्योः) = [अन्तर्हितयोः] अन्नमय कोश के अन्दर स्थापित 'मनोमय व विज्ञानमय' कोशों के उपस्थे समीप वर्तमान वे प्रभु (ऊधः सिषक्ति) = सेवन करते हैं । अर्थात् विज्ञानमय कोश में पहुँचकर ही हम प्रभु का दर्शन कर पाते हैं । हे जीव ! तू (उत्सस्य) = ज्ञानस्रोत के, मानस के (मध्ये) = मध्य में (निहितम्) = स्थापित व विद्यमान (पदम्) = 'पद्यते मुनिभिर्यस्मात् तस्मात् पद उदाहृत: 'उस जाने योग्य व प्राप्त करने के योग्य प्रभु के प्रति (वेः) = जानेवाला है तू सदा उस प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चल । हृदय से ही शरीर में सारे रुधिर का अभिसरण चलता है। यह हृदय रुधिर का आधार है, 'पौराणिक साहित्य में इसे मानसरोवर' कहा गया है। इस मानसरोवर में 'हंस' तैरता है । यह 'हन्ति पाप्मानम्' इस व्युत्पत्ति से परमात्मा ही है। इस प्रभु को हमें प्राप्त करने का यत्न करना चाहिये ।
भावार्थ - भावार्थ- वे आनन्दमय प्रभु ही सब धनों के धरुण हैं। वे ही हमारे ज्ञानकोश को भी भरनेवाले हैं। उस हृदयस्थ प्रभु को जाननेवाले हम बनें।
इस भाष्य को एडिट करें