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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 61 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 61/ मन्त्र 2
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स इद्दा॒नाय॒ दभ्या॑य व॒न्वञ्च्यवा॑न॒: सूदै॑रमिमीत॒ वेदि॑म् । तूर्व॑याणो गू॒र्तव॑चस्तम॒: क्षोदो॒ न रेत॑ इ॒तऊ॑ति सिञ्चत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । इत् । दा॒नाय॑ । दभ्या॑य । व॒न्वन् । च्यवा॑नः । सूदैः॑ । अ॒मि॒मी॒त॒ । वेदि॑म् । तूर्व॑याणः । गू॒र्तव॑चःऽतमः । क्षोदः॑ । न । रेतः॑ । इ॒तःऽऊ॑ति । सि॒ञ्च॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स इद्दानाय दभ्याय वन्वञ्च्यवान: सूदैरमिमीत वेदिम् । तूर्वयाणो गूर्तवचस्तम: क्षोदो न रेत इतऊति सिञ्चत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । इत् । दानाय । दभ्याय । वन्वन् । च्यवानः । सूदैः । अमिमीत । वेदिम् । तूर्वयाणः । गूर्तवचःऽतमः । क्षोदः । न । रेतः । इतःऽऊति । सिञ्चत् ॥ १०.६१.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 61; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] (स) = वह (नाभानेदिष्ठ इत्) = निश्चय से दानाय दान के लिये तथा (दभ्याय) = लोभादि के हिंसन के लिये (वन्वन्) = [वन् = win ] इन्द्रियों को जीतने का प्रयत्न करता है । जितेन्द्रिय बनकरके ही वह लोभादि का हिंसन करता है और त्याग को अपना पाता है । यह (सूदैः) = लोभादि के हिंसनों से (च्यवामः) = सब मलों को अपने से दूर करता हुआ (वेदिं अमिमीत) = वेदि को बनाता है, अर्थात् अपने शरीर को यज्ञस्थली के रूप में परिवर्तित कर देता है । इसका जीवन यज्ञमय बन जाता है, यह सचमुच नाभानेदिष्ट यज्ञरूप केन्द्र के समीप रहनेवाला हो जाता है । [२] (तूर्वयाणः) = शीघ्रता से गमनवाला, स्फूर्ति से कार्यों को करनेवाला यह होता है। (गूर्तवचस्तमः) = अतिशयेन ज्ञान की वाणियों को उठाने व धारण करनेवाला बनता है। और 'तूर्वयाण व गूर्तवचस्तम' बनने के लिये ही (क्षोदो न) = उदक के समान (रेतः) = शरीर में स्थितिवाले इन रेतःकणों को यह (इत ऊति) = इस संसार की वासनाओं से व रोगों से अपने रक्षण के लिये (असिञ्चत्) = शरीर में ही सिक्त करता है । इन रेतःकणों को शरीर में ऊर्ध्वगतिवाला करके यह ऊर्ध्वरेता बनता है। इन सुरक्षित रेतः कणों से यह रोगों व वासनाओं के आक्रमण से बचा रहता है ।

    भावार्थ - भावार्थ - जितेन्द्रिय बनकर हम शरीर को यज्ञवेदी का रूप देनेवाले हों । रेतः कणों को शरीर में ही ऊर्ध्वगति के द्वारा व्याप्त करके हम अपना रक्षण करें, रोगों व वासनाओं का शिकार न हों ।

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