ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 86/ मन्त्र 1
ऋषिः - वृषाकपिरैन्द्र इन्द्राणीन्द्रश्च
देवता - वरुणः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
वि हि सोतो॒रसृ॑क्षत॒ नेन्द्रं॑ दे॒वम॑मंसत । यत्राम॑दद्वृ॒षाक॑पिर॒र्यः पु॒ष्टेषु॒ मत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठवि । हि । सोतोः॑ । असृ॑क्षत । न । इन्द्र॑म् । दे॒वम् । अ॒मं॒स॒त॒ । यत्र॑ । अम॑दत् । वृ॒षाक॑पिः । अ॒र्यः । पु॒ष्टेषु॑ । मत्ऽस॑खा । विश्व॑स्मात् । इन्द्रः॑ । उत्ऽत॑रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि हि सोतोरसृक्षत नेन्द्रं देवममंसत । यत्रामदद्वृषाकपिरर्यः पुष्टेषु मत्सखा विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः ॥
स्वर रहित पद पाठवि । हि । सोतोः । असृक्षत । न । इन्द्रम् । देवम् । अमंसत । यत्र । अमदत् । वृषाकपिः । अर्यः । पुष्टेषु । मत्ऽसखा । विश्वस्मात् । इन्द्रः । उत्ऽतरः ॥ १०.८६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 86; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु मित्रता में आनन्द
पदार्थ -
[१] (हि) = निश्चय से (सोतो:) = ज्ञान के उत्पन्न करने के हेतु से (वि असृक्षत) = विशेषरूप से इन इन्द्रियों का निर्माण हुआ है । परन्तु सामान्यतः ये तत्त्व ज्ञान की ओर न झुककर विषयों की ओर भागती हैं । (देवं इन्द्रम्) = उस प्रकाशमय प्रभु का (न अमंसत) = मनन नहीं करती। 'पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् '। [२] ये इन्द्रदेव व प्रभु वे हैं (यत्र) = जिनमें स्थित हुआ हुआ (वृषाकपिः) = वासनाओं को कम्पित करके दूर करनेवाला [कपि] शक्तिशाली [वृषा] पुरुष (अमदत्) = आनन्द का अनुभव करता है। यह वृषाकपि (अर्य:) = स्वामी बनता है, इन्द्रियों का दास नहीं होता। (पुष्टेषु) = अंग-प्रत्यंग की शक्तियों का पोषण करने पर (मत्सखा) = [माद्यति इति मत्] उस आनन्दमय प्रभु रूप मित्रवाला होता है। [३] यह (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु ही (विश्वस्मात् उत्तरः) = सबसे उत्कृष्ट हैं। एक ओर सारा संसार हो, दूसरी ओर प्रभु, तो ऐसी स्थिति में ये प्रभु ही वरने के योग्य हैं ? ' आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्' आत्म प्राप्ति के लिये सारी पृथिवी को त्यागना ही ठीक है । नचिकेता ने बड़े-से- बड़े ऐश्वर्यों के प्रलोभन को आत्म प्राप्ति के लिये छोड़ दिया । प्रभु मिल गये तो सब कुछ प्राप्त हो ही जाता है।
भावार्थ - भावार्थ–इन्द्रियाँ तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए दी गई हैं। इनके द्वारा तत्त्वज्ञान को प्राप्त करते हुए हमें वृषाकपि बनकर प्रभु मित्रता में आनन्द का अनुभव करना चाहिए।
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