ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 97/ मन्त्र 2
श॒तं वो॑ अम्ब॒ धामा॑नि स॒हस्र॑मु॒त वो॒ रुह॑: । अधा॑ शतक्रत्वो यू॒यमि॒मं मे॑ अग॒दं कृ॑त ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तम् । वः॒ । अ॒म्ब॒ । धामा॑नि । स॒हस्र॑म् । उ॒त । वः॒ । रुहः॑ । अध॑ । श॒त॒ऽक्र॒त्वः॒ । यू॒यम् । इ॒मम् । मे॒ । अ॒ग॒दम् । कृ॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शतं वो अम्ब धामानि सहस्रमुत वो रुह: । अधा शतक्रत्वो यूयमिमं मे अगदं कृत ॥
स्वर रहित पद पाठशतम् । वः । अम्ब । धामानि । सहस्रम् । उत । वः । रुहः । अध । शतऽक्रत्वः । यूयम् । इमम् । मे । अगदम् । कृत ॥ १०.९७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 97; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
विषय - मातृतुल्य ओषधियाँ
पदार्थ -
[१] हे (अम्ब) = मातृवत् हितकारिणी ओषधियो ! (वः) = तुम्हारे (धामानि) = तेज (शतम्) = सैंकड़ों हैं। (उत) = और (वः) = तुम्हारे (रुहः) = प्रादुर्भाव - विकास (सहस्त्रम्) = हजारों ही हैं। (अधा) = अब (शतक्रत्वः) = सैंकड़ों शक्तियोंवाली (यूयम्) = तुम (मे) = मेरे (इमम्) = इस शरीर को (अगदम्) = रोगशून्य कृत करो। [२] हजारों प्रकार की ओषधियाँ हैं। सबके अन्दर अद्भुत शक्तिदायक तत्त्व निहित हैं। इनके ठीक सेवन से शरीर नीरोग बना रहता है। वस्तुतः ये ओषधियाँ वनस्पतियाँ मातृवत् हितकारिणी हैं।
भावार्थ - भावार्थ - ओषधियाँ अपने तेजों से हमारे शरीरों को नीरोग करती हैं।
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