ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - पञ्चमः
अपा॑य्य॒स्यान्ध॑सो॒ मदा॑य॒ मनी॑षिणः सुवा॒नस्य॒ प्रय॑सः। यस्मि॒न्निन्द्रः॑ प्र॒दिवि॑ वावृधा॒न ओको॑ द॒धे ब्र॑ह्म॒ण्यन्त॑श्च॒ नरः॑॥
स्वर सहित पद पाठअपा॑यि । अ॒स्य । अन्ध॑सः । मदा॑य । मनी॑षिणः । सु॒वा॒नस्य॑ । प्रय॑सः । यस्मि॑न् । इन्द्रः॑ । प्र॒ऽदिवि॑ । व॒वृ॒धा॒नः । ओकः॑ । द॒धे । ब्र॒ह्म॒ण्यन्तः॑ । च॒ । नरः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपाय्यस्यान्धसो मदाय मनीषिणः सुवानस्य प्रयसः। यस्मिन्निन्द्रः प्रदिवि वावृधान ओको दधे ब्रह्मण्यन्तश्च नरः॥
स्वर रहित पद पाठअपायि। अस्य। अन्धसः। मदाय। मनीषिणः। सुवानस्य। प्रयसः। यस्मिन्। इन्द्रः। प्रऽदिवि। ववृधानः। ओकः। दधे। ब्रह्मण्यन्तः। च। नरः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्र व ब्रह्मण्यन् का ओकस्
पदार्थ -
१. (अस्य) = इस सुवानस्य शरीर में उत्पन्न किये जाते हुए (मनीषिणः) = बुद्धिवाले-बुद्धि को तीव्र करनेवाले (प्रयसः) = प्रीतिकर (अन्धसः) = सोम का (अपायि) = पान किया जाता है। (मदाय) = हवि के लिए। इस सोम का पान करने से जीवन में उल्लास का अनुभव होता है। २. (यस्मिन् प्रदिवि) = जिस प्रकृष्ट प्रकाशवाले सोम में (वावृधान:) = खूब ही वृद्धि को प्राप्त करता हुआ ओकः दधे = निवास को धारण करता है। इन्द्र का आधार यह सोम ही बनता है। च और ब्रह्मण्यन्तः ज्ञान (ब्रह्म) की कामनावाले इन्द्रः नरः = उन्नतिपथ पर चलनेवाले लोग इस सोम मे ही निवास को धारण करते हैं। जीवन का मूल आधार यह सोम ही है ।
भावार्थ - भावार्थ - सोम का शरीर में व्यापन करने से यह उल्लास का कारण बनता है - बुद्धि को यह तीव्र करता है।
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