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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अ॒स्य मे॑ द्यावापृथिवी ऋताय॒तो भू॒तम॑वि॒त्री वच॑सः॒ सिषा॑सतः। ययो॒रायुः॑ प्रत॒रं ते इ॒दं पु॒र उप॑स्तुते वसू॒युर्वां॑ म॒हो द॑धे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । मे॒ । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । ऋ॒त॒ऽय॒तः । भू॒तम् । अ॒वि॒त्री इति॑ । वच॑सः । सिसा॑सतः । ययोः॑ । आयुः॑ । प्र॒ऽत॒रम् । ते॒ इति॑ । इ॒दम् । पु॒रः । उप॑स्तुते॒ इत्युप॑ऽस्तुते । व॒सु॒ऽयुः । वा॒ । म॒हः । द॒धे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्य मे द्यावापृथिवी ऋतायतो भूतमवित्री वचसः सिषासतः। ययोरायुः प्रतरं ते इदं पुर उपस्तुते वसूयुर्वां महो दधे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य। मे। द्यावापृथिवी इति। ऋतऽयतः। भूतम्। अवित्री इति। वचसः। सिसासतः। ययोः। आयुः। प्रऽतरम्। ते इति। इदम्। पुरः। उपस्तुते इत्युपऽस्तुते। वसुऽयुः। वाम्। महः। दधे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक, (ऋतायतः) = ॠत का आचरण करनेवाले (सिषासत:) = सम्भजन की इच्छावाले अथवा धन को संविभागपूर्वक सेवन करनेवाले (मे) = मेरे (अस्य वचसः) = इस स्तुतिवचन के (अवित्री भूतम्) = रक्षक हों। द्युलोक व पृथिवीलोक, अर्थात् मस्तिष्क और शरीर मेरे ऐसे बने रहें कि मैं प्रभु का स्तवन करता हुआ सदा ऋतमार्ग पर चलता रहूँ तथा संविभागपूर्वक खाने की वृत्तिवाला बना रहूँ। ३. (ययोः) = जिन द्यावापृथिवी का-मस्तिष्क व शरीर का (आयुः प्रतरम्) = आयुष्य अत्यन्त दीर्घ है, (ते) = वे द्यावापृथिवी (इदम्) = [इदानीम्] अब (पुरः उपस्तुते) = सबसे पहले स्तुत होते हैं, अर्थात् जितने दीर्घकाल तक मस्तिष्क व शरीर ठीक रहें उतने ही वे अधिक प्रशंसनीय होते हैं । (वसूयुः) = सब वसुओं की कामनावाला जीवनधनों की इच्छावाला मैं (वाम्) = आपके (महः) = तेज को दधे धारण करता हूँ। मस्तिष्क व शरीर दोनों को मैं तेजस्वी बनाता हूँ।

    भावार्थ - भावार्थ- मेरे जीवन में ऋत हो- मैं संविभागपूर्वक चीजों का सेवन करूँ मेरे शरीर व मस्तिष्क दोनों तेजस्वी हों ।

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