ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 41/ मन्त्र 1
वायो॒ ये ते॑ सह॒स्रिणो॒ रथा॑स॒स्तेभि॒रा ग॑हि। नि॒युत्वा॒न्त्सोम॑पीतये॥
स्वर सहित पद पाठवायो॒ इति॑ । ये । ते॒ । स॒ह॒स्रिणः॑ । रथा॑सः । तेभिः॑ । आ । ग॒हि॒ । नि॒युत्वा॑न् । सोम॑ऽपीतये ॥
स्वर रहित मन्त्र
वायो ये ते सहस्रिणो रथासस्तेभिरा गहि। नियुत्वान्त्सोमपीतये॥
स्वर रहित पद पाठवायो इति। ये। ते। सहस्रिणः। रथासः। तेभिः। आ। गहि। नियुत्वान्। सोमऽपीतये॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 41; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
विषय - सहस्त्री रथ
पदार्थ -
१. 'वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्' इस मन्त्रभाग में कहा है कि शरीर भस्मान्त है तो आत्मा अपार्थिव व अमृत है। 'अत् सातत्य गमने' से आत्मा शब्द बनता है और 'वा गतौ' से वायु । इस वायु को कर्मानुसार शरीर प्राप्त होते रहते हैं। ये शरीर जीवनयात्रा के रथ हैं। मन के दृष्टिकोण से ये सहस्रिण: = [स+हस्] प्रसन्नता युक्त होने चाहिएं। शरीर के दृष्टिकोण से सहस्रिणः = दीर्घकाल तक चलनेवाले होने चाहिएं। मन्त्र में कहते हैं कि (वायो) = हे गतिशील जीव ! ये जो (ते) = तेरे (सहस्त्रिणः) = प्रसन्नतायुक्त तथा दीर्घकाल तक चलनेवाले (रथासः) = शरीर-रथ हैं (तेभिः) = उनसे (आगहि) तू प्रभु के समीप प्राप्त होनेवाला हो । प्रभु को वही व्यक्ति प्राप्त होता है जो कि इस शरीररथ को बड़ा ठीक रखे। सामान्यतः हमें सबल व प्रसन्न बनने का प्रयत्न करना ही चाहिए - यही प्रभु का प्रिय बनने का मार्ग है। २. इस वायु नामक आत्मा के इन्द्रियरूप घोड़ों को 'नियुत् ' कहते हैं, चूँकि इन्हें निश्चय से अपने-अपने कार्य में लगे ही रहना चाहिए । हे वायो ! (नियुत्वान्) = इन प्रशस्त इन्द्रियाश्वोंवाला बनकर (सोमपीतये) = तू सोम का-वीर्यशक्ति का अपने अन्दर ही पान करनेवाला हो। इस सोम को तू शरीर में ही व्याप्त कर । वस्तुतः सुरक्षित हुआ हुआ यह सोम ही तुझे दीर्घजीवी व प्रसन्नचित्त बनानेवाला होगा - यह सोम ही तुझे 'सहस्त्री' बनाएगा।
भावार्थ - भावार्थ– 'हम मन में प्रसन्न हों और शरीर में दीर्घजीवी हों' तभी प्रभु को प्राप्त करेंगे। इसके लिए प्रशस्तेन्द्रिय बनकर सोम का रक्षण करनेवाले बनें ।
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