ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
ऋषिः - सोमाहुतिर्भार्गवः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
श्रेष्ठं॑ यविष्ठ भार॒ताग्ने॑ द्यु॒मन्त॒मा भ॑र। वसो॑ पुरु॒स्पृहं॑ र॒यिम्॥
स्वर सहित पद पाठश्रेष्ठ॑म् । य॒वि॒ष्ठ॒ । भा॒र॒त॒ । अग्ने॑ । द्यु॒ऽमन्त॑म् । आ । भ॒र॒ । वसो॒ इति॑ । पु॒रु॒ऽस्पृह॑म् । र॒यिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रेष्ठं यविष्ठ भारताग्ने द्युमन्तमा भर। वसो पुरुस्पृहं रयिम्॥
स्वर रहित पद पाठश्रेष्ठम्। यविष्ठ। भारत। अग्ने। द्युऽमन्तम्। आ। भर। वसो इति। पुरुऽस्पृहम्। रयिम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
विषय - 'श्रेष्ठ-द्युमान् पुरुस्पृह' रयि
पदार्थ -
१. हे (यविष्ठ) = सब बुराइयों को हमारे से दूर करनेवाले तथा अच्छाइयों का हमारे साथ सम्पर्क करनेवाले प्रभो! आप हमारे लिए (श्रेष्ठम्) = प्रशस्यतम-अधिक से अधिक उत्तम साधनों से कमाए गये (रयिम्) = धन को आभर हमारे में पोषित करिए। आपकी प्रेरणा को प्राप्त करके हम सदा सुपथ से ही धनों को कमानेवाले बनें, २. हे भारत-सबका भरण करनेवाले प्रभो! आप उस धन को हमारे में पोषित करिए जो (द्युमन्तम्) = ज्योतिर्मय हो। हम धन के द्वारा घृत, लवण, तण्डुलेन्धन की चिन्ता से मुक्त होकर ज्ञानवर्धन कर सकें। वह धन ज्ञानसाधनों को जुटाने में सहायक बने। इस धन से हम अपना सुन्दरतम पुस्तकालय बना पाएँ । इसी प्रकार अन्य साधनों को एकत्रित करके ज्योतिर्मय जीवनवाले हों। ३. हे (अग्ने) = सबको नेतृत्व देने वाले व (वसो) = सबके उत्तम निवास के कारणभूत प्रभो! आप (पुरुस्पृहम्) = बहुतों से चाहने योग्य धन को हमें दीजिए। हमारे धनों में आधार देने योग्य सुपात्रों [आध्र] का भी हिस्सा हो-आदरणीय राष्ट्रसेवकों का भी भाग हो [मन्यमान तुर], इस धन में राजा का भी भाग हो [राजा] । इस प्रकार हमारा धन 'पुरुस्पृह' हो ।
भावार्थ - भावार्थ- हमें श्रेष्ठ द्युमान् पुरुस्पृह' रयि की प्राप्ति हो ।
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