Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 11 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 11/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒ग्निर्होता॑ पु॒रोहि॑तोऽध्व॒रस्य॒ विच॑र्षणिः। स वे॑द य॒ज्ञमा॑नु॒षक्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । होता॑ । पु॒रःऽहि॑तः । अ॒ध्व॒रस्य॑ । विऽच॑र्षणिः । सः । वे॒द॒ । य॒ज्ञम् । आ॒नु॒षक् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्होता पुरोहितोऽध्वरस्य विचर्षणिः। स वेद यज्ञमानुषक्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। होता। पुरःऽहितः। अध्वरस्य। विऽचर्षणिः। सः। वेद। यज्ञम्। आनुषक्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] वे प्रभु (अग्निः) = अग्रणी हैं | होता सब पदार्थों को देनेवाले हैं। (पुरोहितः) = हमारे सामने [पुर:] आदर्श के रूप रखे हुए हैं [हित:] अर्थात् हमें प्रभु के गुणों को देखकर ही अपने जीवनों का निर्माण करना है। प्रभु दयालु हैं, तो हमें भी दयालु बनना है। प्रभु न्यायकारी हैं, अतः हमें भी न्यायकारी बनना है। प्रभु की तरह ही ज्ञानी व न्यायकारी बनने का प्रयत्न करना है। (अध्वरस्य विचर्षणिः) = वे यज्ञों के विशेषरूप से द्रष्टा हैं- ध्यान करनेवाले हैं। हम यज्ञ करते हैं तो प्रभु उन यज्ञों का रक्षण व पालन करते हैं 'अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च' [भुज पालने] । [२] (सः) = वे प्रभु (आनुषक्) = निरन्तर (यज्ञम्) = यज्ञ को (वेद) = जानते हैं। प्रभु का ब्रह्माण्ड का निर्माण, धारण व प्रलयवाला यज्ञ निरन्तर चल रहा है। प्रभु यज्ञरूप ही हैं- यज्ञ ही हैं। इनकी उपासना हम भी यज्ञशील बनकर ही कर सकते हैं 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः' ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु यज्ञरूप हैं। हमें भी यज्ञ करने के लिए सब आवश्यक पदार्थों को देते हैं और हमारे यज्ञों का रक्षण करते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top