ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 13/ मन्त्र 7
ऋषिः - ऋषभो वैश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
नू नो॑ रास्व स॒हस्र॑वत्तो॒कव॑त्पुष्टि॒मद्वसु॑। द्यु॒मद॑ग्ने सु॒वीर्यं॒ वर्षि॑ष्ठ॒मनु॑पक्षितम्॥
स्वर सहित पद पाठनु । नः॒ । रा॒स्व॒ । स॒हस्र॑ऽवत् । तो॒कऽव॑त् । पु॒ष्टि॒ऽमत् । वसु॑ । द्यु॒मत् । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽवीर्य॑म् । वर्षि॑ष्ठम् । अनु॑पऽक्षितम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नू नो रास्व सहस्रवत्तोकवत्पुष्टिमद्वसु। द्युमदग्ने सुवीर्यं वर्षिष्ठमनुपक्षितम्॥
स्वर रहित पद पाठनु। नः। रास्व। सहस्रऽवत्। तोकऽवत्। पुष्टिऽमत्। वसु। द्युमत्। अग्ने। सुऽवीर्यम्। वर्षिष्ठम्। अनुपऽक्षितम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 13; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 7
विषय - प्रार्थनीय धन
पदार्थ -
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! आप (नः) = हमारे लिए (नु) = शीघ्र ही (वसु) = धन को (रास्व) = दीजिए। जो धन (सहस्रवत्) = हजारों की संख्यावाला है, अर्थात् पर्याप्त है। (तोकवत्) = उत्तम सन्तानवाला हैजो धन हमारी सन्तानों को उत्तम बनाने में विनियुक्त होता है। (पुष्टिमत्) = हमारे पोषणवाला है । जिस धन द्वारा हम उचित आहार-विहार प्राप्त करते हुए अपना ठीक से पोषण कर पाते हैं । [२] जो धन (द्युमत्) = ज्योतिवाला है, ज्ञान की साधनभूत पुस्तकों आदि के संग्रह का साधन बनता हुआ हमारी ज्ञानवृद्धि का कारण बनता है। (सुवीर्यम्) = जो धन उत्तम वीर्य व पराक्रमवाला है- जिस धन द्वारा हम सौम्य भोजनों को प्राप्त करके अपनी शक्ति का वर्धन करते हैं। वर्षिष्ठम् जो धन बढ़ता ही है, (अनुपक्षितम्) = क्षीण नहीं होता, अर्थात् आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सदा पर्याप्त रहता है।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभुकृपा से हमें वह धन प्राप्त हो जो कि हमारी आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त होता हुआ हमारी 'वृद्धि, पुष्टि, ज्योति व शक्ति' का कारण बनता है। सम्पूर्ण सूक्त में प्रभु का अग्नि नाम से उपासन करते हुए उन्नति के लिए साधनभूत वस्तुओं की याचना की गई है। अगले सूक्त में भी प्रभु का अग्नि नाम से ही उपासन करते हुए कहते हैं-
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