ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
इ॒मं नो॑ य॒ज्ञम॒मृते॑षु धेही॒मा ह॒व्या जा॑तवेदो जुषस्व। स्तो॒काना॑मग्ने॒ मेद॑सो घृ॒तस्य॒ होतः॒ प्राशा॑न प्रथ॒मो नि॒षद्य॑॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । नः॒ । य॒ज्ञम् । अ॒मृते॑षु । धे॒हि॒ । ई॒मा । ह॒व्या । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । जु॒ष॒स्व॒ । स्तो॒काना॑म् । अ॒ग्ने॒ । मेद॑सः । घृ॒तस्य॑ । होत॒रिति॑ । प्र । अ॒शा॒न॒ । प्र॒थ॒मः । नि॒ऽसद्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं नो यज्ञममृतेषु धेहीमा हव्या जातवेदो जुषस्व। स्तोकानामग्ने मेदसो घृतस्य होतः प्राशान प्रथमो निषद्य॥
स्वर रहित पद पाठइमम्। नः। यज्ञम्। अमृतेषु। धेहि। इमा। हव्या। जातऽवेदः। जुषस्व। स्तोकानाम्। अग्ने। मेदसः। घृतस्य। होतरिति। प्र। अशान। प्रथमः। निऽसद्य॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
विषय - यज्ञ, हव्य व घृत
पदार्थ -
[१] प्रभु जीव से कहते हैं कि (इमम्) = इस (नः यज्ञम्) = हमारे द्वारा प्रतिपादित किये गये यज्ञ को (अमृतेषु) = नीरोगताओं के निमित्त (धेहि) = धारण कर । यज्ञों को करते हुए अपने जीवन को नीरोग बना। हे (जातवेदः) = उत्पन्न हुआ है ज्ञान जिसमें ऐसा तू (इमा हव्या) = इन हव्य पदार्थों का जुषस्व प्रीतिपूर्वक सेवन कर । ज्ञानी पुरुष सदा पवित्र पदार्थों का ही सेवन करता है वह सदा दानपूर्वक अदन करनेवाला बनता है। [२] हे (अग्ने) = प्रगतिशील, (होता) = दानपूर्वक अदन करनेवाले जीव! तू (प्रथमः निषद्य) = सर्वप्रथम उपासना में स्थित होकर, अर्थात् प्रभुस्मरण के अनन्तर (घृतस्य) = घृत के (मेदसः) = मेदस्तत्त्व के (स्तोकान्) = कणों को प्राशान खानेवाला बन। भोजन में मेदस्तत्त्व [Fat] का होना भी आवश्यक है, परन्तु वह मेदस्तत्त्व घृत से ही प्राप्त किया जाए। इसे अधिक मात्र में न खाकर थोड़ा ही खाया जाए 'आज्यं तौलस्य प्राशान' । तेल से भी व चरबी से भी यह तत्त्व प्राप्त हो सकता है, परन्तु वह मनुष्य के लिये वाञ्छनीय नहीं । घृत से ही इस तत्त्व को लेना चाहिए।
भावार्थ - भावार्थ- हम यज्ञशील हों। हव्य-पदार्थों का ही सेवन करें। मेदस्तत्त्व को प्राप्त करने के लिए मितरूप में घृत का प्रयोग करें।
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