ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - वैश्वानरः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
वै॒श्वा॒न॒रं मन॑सा॒ग्निं नि॒चाय्या॑ ह॒विष्म॑न्तो अनुष॒त्यं स्व॒र्विद॑म्। सु॒दानुं॑ दे॒वं र॑थि॒रं व॑सू॒यवो॑ गी॒र्भी र॒ण्वं कु॑शि॒कासो॑ हवामहे॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒रम् । मन॑सा । अ॒ग्निम् । नि॒ऽचाय्य॑ । ह॒विष्म॑न्तः । अ॒नु॒ऽस॒त्यम् । स्वः॒ऽविद॑म् । सु॒ऽदानु॑म् । दे॒वम् । र॒थि॒रम् । व॒सु॒ऽयवः॑ । गीः॒ऽभिः । र॒ण्वम् । कु॒शि॒कासः॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानरं मनसाग्निं निचाय्या हविष्मन्तो अनुषत्यं स्वर्विदम्। सुदानुं देवं रथिरं वसूयवो गीर्भी रण्वं कुशिकासो हवामहे॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानरम्। मनसा। अग्निम्। निऽचाय्य। हविष्मन्तः। अनुऽसत्यम्। स्वःऽविदम्। सुऽदानुम्। देवम्। रथिरम्। वसुऽयवः। गीःऽभिः। रण्वम्। कुशिकासः। हवामहे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
विषय - वैश्वानर प्रभु का दर्शन
पदार्थ -
[१] (वसूयवः) = सब वसुओं को अपनाने की कामनावाले शरीर में निवास को उत्तम बनाने के लिए आवश्यक तत्त्वों को जुटानेवाले (कुशिकासः) = प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाले हम (गीर्भिः) = स्तुति-वाणियों से (रण्वम्) = रमणीय प्रभु को हवामहे पुकारते हैं। उस प्रभु को जो कि (सुदानुम्) = सब उत्तम वस्तुओं को देनेवाले हैं अथवा [दाप् लवने] हमारी वासनाओं का उत्तमता से खण्डन करनेवाले हैं। (देवम्) = प्रकाशमय हैं- हमारे जीवनों को द्योतित करनेवाले हैं। (रथिरम्) = हमारे शरीर रूप रथ के सारथि हैं। [२] (हविष्मन्त:) = दानपूर्वक अदन करनेवाले व्यक्ति इस (अग्निम्) = प्रकाशमय प्रभु को (मनसा) = शुद्ध अन्तःकरण द्वारा (निचाय्या) = निश्चय करके पुकारते हैं [हवामहे]। उस प्रभु को जो कि (वैश्वानरम्) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले हैं। (अनुषत्यम्) = सत्य से अनुगत हैं, सत्यस्वरूप हैं और सत्य द्वारा प्राप्त होते हैं। जितना-जितना हम सत्य को अपनाते हैं, उतना उतना प्रभु के समीप होते हैं। (स्वर्विदम्) = ये प्रभु प्रकाश को प्राप्त करानेवाले हैं। [स्वः = प्रकाश, विद् लाभे] ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु का दर्शन शुद्ध अन्तःकरण से होता है। जितना-जितना हम सत्य को अपनाते हैं, उतना उतना प्रभु के समीप होते हैं ।
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