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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्र॒ सोमं॑ सोमपते॒ पिबे॒मं माध्य॑न्दिनं॒ सव॑नं॒ चारु॒ यत्ते॑। प्र॒प्रुथ्या॒ शिप्रे॑ मघवन्नृजीषिन्वि॒मुच्या॒ हरी॑ इ॒ह मा॑दयस्व॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । सोम॑म् । सो॒म॒ऽप॒ते॒ । पिब॑ । इ॒मम् । माध्य॑न्दिनम् । सव॑नम् । चारु॑ । यत् । ते॒ । प्र॒ऽप्रुथ्य॑ । शिप्रे॒ इति॑ । म॒घ॒ऽवन् । ऋ॒जी॒षि॒न् । वि॒ऽमुच्य॑ । हरी॒ इति॑ । इ॒ह । मा॒द॒य॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्र सोमं सोमपते पिबेमं माध्यन्दिनं सवनं चारु यत्ते। प्रप्रुथ्या शिप्रे मघवन्नृजीषिन्विमुच्या हरी इह मादयस्व॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। सोमम्। सोमऽपते। पिब। इमम्। माध्यन्दिनम्। सवनम्। चारु। यत्। ते। प्रऽप्रुथ्य। शिप्रे इति। मघऽवन्। ऋजीषिन्। विऽमुच्य। हरी इति। इह। मादयस्व॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
    अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (१) हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (सोमपते) = सोम का रक्षण करनेवाले ! (इमं सोमं पिब) = इस सोम को [= वीर्यशक्ति को] तू अपने अन्दर पीनेवाला बन सोम को अपने अन्दर सुरक्षित कर । (यत्) = जो (ते) = तेरा (माध्यन्दिनं सवनम्) = जीवन का मध्याह्न यज्ञ है- गृहस्थ का समय है, २४ से ६८ तक ४४ वर्ष का मध्य जीवन है वह भी चारु अत्यन्त सुन्दर हो । जीवन के प्रातः सवन में, प्रथम २४ वर्षों में तूने सोम का पान किया था, अब इन ४४ वर्षों में भी सोम का रक्षण करना है। [२] हे (मघवन्) = [मघ=मख] यज्ञमय जीवनवाले, (ऋजीषिन्) = ऋजुमार्ग से गति करनेवाले (ऋजु + इष्) इन्द्र ! तू (शिप्रे) = हनू व नासिकाओं का (प्रप्रुथ्या) = [पोथृपर्याप्तौ] पूरण करके इनकी कमियों को दूर करके (हरी) = अपने इन्द्रियाश्वों को (विमुच्या) = प्रतिक्षण विषयरूप घास चरने से मुक्त करके (इह) = इस जीवन में (मादयस्व) = आनन्द का अनुभव कर। हनुओं [जबड़ों] की न्यूनता को दूर करने का भाव यह है कि हम हितकर भोजन को मात्रा में चबाकर खाएँ। नासिका के पूरण का भाव यह है कि हम प्राणायाम द्वारा प्राणसाधना करनेवाले बनें । इन्द्रियाश्वों की मुक्ति यही है कि उन्हें विषयों से पृथक् रखें। इस प्रकार सोमरक्षण करते हुए हम जीवन को सुन्दर बनाएँ ।

    भावार्थ - भावार्थ- गृहस्थ जीवन में भी सोमरक्षण का हम पूरा ध्यान करें। परिमित खाएँ, प्राणायाम करें। इन्द्रियों को विषयों में न फँसने देकर जीवन के वास्तविक आनन्द का अनुभव करें।

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