ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
आ म॒न्द्रैरि॑न्द्र॒ हरि॑भिर्या॒हि म॒यूर॑रोमभिः। मा त्वा॒ के चि॒न्नि य॑म॒न्विं न पा॒शिनोऽति॒ धन्वे॑व॒ ताँ इ॑हि॥
स्वर सहित पद पाठआ । म॒न्द्रैः । इ॒न्द्र॒ । हरि॑ऽभिः । या॒हि । म॒यूर॑रोमऽभिः । मा । त्वा॒ । के । चि॒त् । नि । य॒म॒न् । विम् । न । पा॒शिनः॑ । अति॑ । धन्व॑ऽइव । तान् । इ॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि मयूररोमभिः। मा त्वा के चिन्नि यमन्विं न पाशिनोऽति धन्वेव ताँ इहि॥
स्वर रहित पद पाठआ। मन्द्रैः। इन्द्र। हरिऽभिः। याहि। मयूररोमऽभिः। मा। त्वा। के। चित्। नि। यमन्। विम्। न। पाशिनः। अति। धन्वऽइव। तान्। इहि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
विषय - विषय-मरुस्थली का उलंघन
पदार्थ -
[१] प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (हरिभिः) = इन इन्द्रियाश्वों से आयाहि हमारे समीप आनेवाला हो। उन इन्द्रियाश्वों से जो कि (मन्द्रैः) = [praiseworthy] प्रशंसनीय हैं और (मयूररोमभिः) = [मीनाति हिनस्ति इति मयूरः, 'रोम'=रुशब्दे] वासना-विध्वंसक शब्दों का उच्चारण करनेवाले हैं। ज्ञानेन्द्रियरूप अश्व गम्भीर ज्ञानवाले होकर प्रशंसनीय हैं, तो कर्मेन्द्रियरूप अश्व प्रभु के नामों का उच्चारण करते हुए वासनाओं का विनाश करनेवाले हैं। ऐसे इन्द्रियाश्व ही हमें प्रभु की ओर ले चलते हैं । [२] (त्वा) = तुझे इस यात्रा में (केचित्) = कोई भी विषय (मा नियमन्) = मत रोकनेवाले हों। तू विषयों से बीच में ही पकड़ न लिया जाए, (न) = जैसे कि (विम्) = पक्षी को (पाशिनः) = व्याधे पकड़ लेते हैं। विषय व्याध के समान हैं, हम इनके शिकञ्जे में न पड़ जाएँ। (त्वन्) = उन विषयों को (धन्व इव) = मरुस्थल की तरह (अति इहि) लाँघकर तू हमारे समीप प्राप्त होनेवाला हो । विषय वस्तुत: मरुस्थल हैं, उनमें कोई वास्तविक आनन्द नहीं। उनमें फँसना तो मूढ़ता ही है।
भावार्थ - भावार्थ- हम विषयों में न फँसते हुए प्रभु की ओर आगे और आगे बढ़नेवाले हों ।
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