ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यु॒ध्मस्य॑ ते वृष॒भस्य॑ स्व॒राज॑ उ॒ग्रस्य॒ यूनः॒ स्थवि॑रस्य॒ घृष्वेः॑। अजू॑र्यतो व॒ज्रिणो॑ वी॒र्या॒३॒॑णीन्द्र॑ श्रु॒तस्य॑ मह॒तो म॒हानि॑॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ध्मस्य॑ । ते॒ । वृ॒ष॒भस्य॑ । स्व॒ऽराजः॑ । उ॒ग्रस्य॑ । यूनः॑ । स्थवि॑रस्य । घृष्वेः॑ । अजू॑र्यतः । व॒ज्रिणः॑ । वी॒र्या॑णि । इन्द्र॑ । श्रु॒तस्य॑ । म॒ह॒तः । म॒हानि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युध्मस्य ते वृषभस्य स्वराज उग्रस्य यूनः स्थविरस्य घृष्वेः। अजूर्यतो वज्रिणो वीर्या३णीन्द्र श्रुतस्य महतो महानि॥
स्वर रहित पद पाठयुध्मस्य। ते। वृषभस्य। स्वऽराजः। उग्रस्य। यूनः। स्थविरस्य। घृष्वेः। अजूर्यतः। वज्रिणः। वीर्याणि। इन्द्र। श्रुतस्य। महतः। महानि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
विषय - महान् शक्तिशाली प्रभु
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (ते) = आपके (वीर्याणि) = शक्तिशाली कर्म (महानि) = अत्यन्त महान् हैं। उन आपके कर्म महान् हैं, जो आप (युध्यस्य) = योधनशील हैं हमारी काम-क्रोध आदि वासनाओं से वस्तुतः आप ही युद्ध करते हैं। (वृषभस्य) = इस युद्ध द्वारा इन शत्रुओं का संहार करके आप हमारे पर सुखों का वर्षण करते हैं। (स्वराज:) = आप अपनी दीप्तिवाले हैं (उग्रस्य) = शत्रुओं के लिए भयङ्कर हैं। (यून:) = नित्यतरुण होते (स्थविरस्य) = वृद्ध हुए 'यूनः स्थविरस्य' यह विरोधाभास है, परन्तु वस्तुतः यूनः का अर्थ है 'दुरितों का अमिश्रण व सुवितों का मिश्रण करनेवाले' तथा स्थविरस्य का अर्थ है 'स्थिर- अविचल'। ये युवा स्थविर प्रभु (घृष्वेः) = शत्रुओं का घर्षण करनेवाले हैं। [२] उन प्रभु के कर्म महान् हैं, जो कि (अजूर्यतः) = कभी जीर्ण नहीं होते प्रभु की शक्तियाँ कभी क्षीण नहीं होतीं। (वज्रिणः) = वे प्रभु हाथ में वज्र लिये हुए हैं-प्रभु का यह वज्र सब दुष्टों का दलन करता है। (श्रुतस्य) = वे प्रभु ज्ञान के पुञ्ज हैं और (महतः महानि) = महान् से महान् हैं। इन प्रभु के कर्म वस्तुतः महान् हैं ।
भावार्थ - भावार्थ – शक्तिशाली महान् प्रभु के सब कर्म महान् हैं- सब कर्म शक्तिशाली हैं।
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