ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
महि॑ त्वा॒ष्ट्रमू॒र्जय॑न्तीरजु॒र्यं स्त॑भू॒यमा॑नं व॒हतो॑ वहन्ति। व्यङ्गे॑भिर्दिद्युता॒नः स॒धस्थ॒ एका॑मिव॒ रोद॑सी॒ आ वि॑वेश॥
स्वर सहित पद पाठमहि॑ । त्वा॒ष्ट्रम् । ऊ॒र्जय॑न्तीः । अ॒जु॒र्यम् । स्त॒भु॒ऽयमा॑नम् । व॒हतः॑ । व॒ह॒न्ति॒ । वि । अङ्गे॑भिः । दि॒द्यु॒ता॒नः । स॒धऽस्थे॑ । एका॑म्ऽइव । रोद॑सी॒ इति॑ । आ । वि॒वे॒श॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महि त्वाष्ट्रमूर्जयन्तीरजुर्यं स्तभूयमानं वहतो वहन्ति। व्यङ्गेभिर्दिद्युतानः सधस्थ एकामिव रोदसी आ विवेश॥
स्वर रहित पद पाठमहि। त्वाष्ट्रम्। ऊर्जयन्तीः। अजुर्यम्। स्तभुऽयमानम्। वहतः। वहन्ति। वि। अङ्गेभिः। दिद्युतानः। सधऽस्थे। एकाम्ऽइव। रोदसी इति। आ। विवेश॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
विषय - अजुर्य+स्तभूयमान
पदार्थ -
[१] गतमन्त्र में वर्णित 'सुयमाः भवन्ती: ' उत्तम नियमन में चलती हुई इन्द्रियाँ (वहतः) = सब कार्यों का वहन करती हुई (महि) = इस पूजा की वृत्तिवाले (त्वाष्ट्रम्) = निर्माता प्रभु के उपासक अतएव (अजुर्यम्) = न जीर्ण होनेवाली (स्तभूयमानम्) = अपनी शक्तियों का स्तम्भन करते हुए पुरुष को (ऊर्जयन्तीः) = बल व प्राण से युक्त करती हुई (वहन्ति) = कार्यचक्र को पूर्ण करती हैं। [२] यह पुरुष (अंगेभिः) = एक-एक अंग से (विदिद्युतान:) = विशेषरूप से दीप्तिवाला होता है। (सधस्थे) = प्रभु के साथ एक स्थान में स्थित होने पर (रोदसी) = द्यावापृथिवी में इस प्रकार प्राविवेश प्रवेश करता है, (इव) = जैसे कि (एकाम्) = ये दोनों एक हों। मस्तिष्क व शरीर ही द्यावापृथिवी हैं। यह केवल मस्तिष्क को ही नहीं विकसित करता, शरीर का भी पूरा ध्यान करता है। शरीर के साथ मस्तिष्क को भी विकसित करते हुए चलता है। शरीर व मस्तिष्क को एक ही वस्तु के दो सिरे बना देता है। प्रभु का स्मरण करता हुआ यह ब्रह्म और क्षत्र दोनों का विकास करता है।
भावार्थ - भावार्थ- इन्द्रियों के नियमन से शक्ति व ज्ञान का वर्धन होता है। मनुष्य अजीर्ण व स्थिर शक्तियोंवाला बनता है।
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