ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निर्लिङ्गोक्ता वा
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
प्रत्य॒ग्निरु॒षसो॑ जा॒तवे॑दा॒ अख्य॑द्दे॒वो रोच॑माना॒ महो॑भिः। आ ना॑सत्योरुगा॒या रथे॑ने॒मं य॒ज्ञमुप॑ नो यात॒मच्छ॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । अ॒ग्निः । उ॒षसः॑ । जा॒तऽवे॑दाः । अख्य॑त् । दे॒वः । रोच॑मानाः । महः॑ऽभिः । आ । ना॒स॒त्या॒ । उ॒रु॒ऽगा॒या । रथे॑न । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । उप॑ । नः॒ । या॒त॒म् । अच्छ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यग्निरुषसो जातवेदा अख्यद्देवो रोचमाना महोभिः। आ नासत्योरुगाया रथेनेमं यज्ञमुप नो यातमच्छ ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्रति। अग्निः। उषसः। जातऽवेदाः। अख्यत्। देवः। रोचमानाः। महःऽभिः। आ। नासत्या। उरुऽगाया। रथेन। इमम्। यज्ञम्। उप। नः। यातम्। अच्छ ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - दीप्त उषाएँ
पदार्थ -
[१] (जातवेदाः) = सर्वज्ञ (अग्निः) = अग्रणी (देवः) = प्रकाशमय प्रभु (महोभिः) = तेजस्विताओं से (रोचमानाः) = देदीप्यमान (उषसः) = उषाओं को (प्रति अख्यत्) = प्रतिदिन प्रकाशित करते हैं। हमारे लिये प्रभु कृपा से उन उषाओं का प्रादुर्भाव होता है जो कि हमें तेजस्विता व दीप्ति प्राप्त करानेवाली होती हैं। इन उषाओं में प्राणायाम से हम ऊर्ध्वरेता बनकर तेजस्विता को सिद्ध करते हैं, तथा स्वाध्याय के द्वारा ज्ञानदीप्ति को बढ़ाते हैं । [२] हे (नासत्या) = असत्य को विनष्ट करनेवाले प्राणापानो! आप (उरुगाया) = अत्यन्त गायन के योग्य, प्रशंसनीय हो । अथवा प्रभूतगमन वाले हो, हमारे शरीरों में स्फूर्ति के बढ़ानेवाले हो। आप (इमं नः यज्ञं अच्छ) = हमारे इस जीवनयज्ञ की ओर (रथेन) = इस उत्तम शरीर-रथ के साथ (उपयातम्) = समीपता से प्राप्त होवो। आपकी साधना से हमें उत्तम शरीर-रथ प्राप्त हो ।
भावार्थ - भावार्थ- हमारे लिये उषाकाल तेजस्विता व दीप्ति को देनेवाला हो । प्राणसाधना से हमारा यह शरीर-रथ निर्दोष बने ।
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