ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
को अ॒द्य नर्यो॑ दे॒वका॑म उ॒शन्निन्द्र॑स्य स॒ख्यं जु॑जोष। को वा॑ म॒हेऽव॑से॒ पार्या॑य॒ समि॑द्धे अ॒ग्नौ सु॒तसो॑म ईट्टे ॥१॥
स्वर सहित पद पाठकः । अ॒द्य । नर्यः॑ । दे॒वऽका॑मः । उ॒शन् । इन्द्र॑स्य । स॒ख्यम् । जु॒जो॒ष॒ । कः । वा॒ । म॒हे । अव॑से । पार्या॑य । सम्ऽइ॑द्धे । अ॒ग्नौ । सु॒तऽसो॑मः । ई॒ट्टे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
को अद्य नर्यो देवकाम उशन्निन्द्रस्य सख्यं जुजोष। को वा महेऽवसे पार्याय समिद्धे अग्नौ सुतसोम ईट्टे ॥१॥
स्वर रहित पद पाठकः। अद्य। नर्यः। देवऽकामः। उशन्। इन्द्रस्य। सख्यम्। जुजोष। कः। वा। महे। अवसे। पार्याय। सम्ऽइद्धे। अग्नौ। सुतऽसोमः। ईट्टे ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - नर्यः देवकामः
पदार्थ -
[१] (कः) = कोई विरल व्यक्ति ही (अद्य) = आज (नर्य:) नरहितकारी कर्मों में लगा हुआ (देवकाम:) = दिव्यगुणों की कामनावाला व देव [प्रभु]-प्राप्ति की कामनावाला (उशन्) = चाहता हुआ, अर्थात् इच्छापूर्वक (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के (सख्यम्) = मित्रता को (जुजोष) = प्रीतिपूर्वक सेवन करता है। कोई विरल व्यक्ति ही प्रभु की ओर झुकता है । [२] (कः वा) = या कौन (सुतसोमः) = सोम का सम्पादन करनेवाला (अग्नौ समिद्धे) = ज्ञानाग्नि के समिद्ध होने पर (महे) = महान् (पार्याय) = भवसागर को पार करने में उत्तम (अवसे) = रक्षण के लिये (ईट्टे) = प्रभु का उपासन करता है। प्रभु के उपासन का प्रकार यही है कि, [क] हम शरीर में सोम का रक्षण करें, [ख] इससे ज्ञानाग्नि समिद्ध होगी, [ग] हम विषयों में न फँसेंगे। इस प्रकार हम प्रभु का वास्तविक पूजन कर रहे होंगे।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु की मित्रता में हम नरहितकारी कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। विषयों में न फँसकर भवसागर से पार हो जाते हैं।
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