ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ नः॑ स्तु॒त उप॒ वाजे॑भिरू॒ती इन्द्र॑ या॒हि हरि॑भिर्मन्दसा॒नः। ति॒रश्चि॑द॒र्यः सव॑ना पु॒रूण्या॑ङ्गू॒षेभि॑र्गृणा॒नः स॒त्यरा॑धाः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । स्तु॒तः । उप॑ । वाजे॑भिः । ऊ॒ती । इन्द्र॑ । या॒हि । हरि॑ऽभिः । म॒न्द॒सा॒नः । ति॒रः । चि॒त् । अ॒र्यः । सव॑ना । पु॒रूणि । आ॒ङ्गू॒षेभिः॑ । गृ॒णा॒नः । स॒त्यऽरा॑धाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नः स्तुत उप वाजेभिरूती इन्द्र याहि हरिभिर्मन्दसानः। तिरश्चिदर्यः सवना पुरूण्याङ्गूषेभिर्गृणानः सत्यराधाः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठआ। नः। स्तुतः। उप। वाजेभिः। ऊती। इन्द्र। याहि। हरिऽभिः। मन्दसानः। तिरः। चित्। अर्यः। सवना। पुरूणि। आङ्गूषेभिः। गृणानः। सत्यऽराधाः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
विषय - 'सत्यराधाः' प्रभु
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (स्तुतः) = स्तुति किये गये आप (नः) = हमारे (उप) = समीप (ऊती) = रक्षा करने के लिए (वाजेभिः) = शक्तियों के साथ (आयाहि) = आइये । शक्तियों को प्राप्त कराके आप हमें आत्मरक्षण के योग्य बनाते हैं (मन्दसान:) = आनन्दित करते हुए आप (हरिभिः) = इन्द्रियाश्वों के साथ हमें प्राप्त होते हैं। उत्तम इन्द्रियाश्वों द्वारा आप हमारे आनन्द का कारण बनते हैं। [२] (अर्यः) = स्वामी आप (तिरः चित्) = तिरोहित होते हुए भी हमें न दिखते हुए भी आप (पुरूणि) = पालक व पूरक (सवना) = यज्ञों के प्रति रक्षणार्थ प्राप्त होते हैं- सर्व यज्ञों के रक्षक आप ही तो हैं अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च । आप (आंगूषेभिः) = हमारे से किये जानेवाले स्तोत्रों से (गृणान:) = स्तुति किये जाते हैं और (सत्यराधाः) = सत्यधनवाले हैं। स्तुत होने पर आप सत्यधन हमें प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करें। स्तुत- प्रभु हमारा रक्षण करते हैं, हमें उत्तम इन्द्रियाश्व प्राप्त कराते हैं और यज्ञों की प्रेरणा देते हैं। वे सत्यधन देनेवाले हैं।
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