ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
नकि॑रिन्द्र॒ त्वदुत्त॑रो॒ न ज्यायाँ॑ अस्ति वृत्रहन्। नकि॑रे॒वा यथा॒ त्वम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठनकिः॑ । इ॒न्द्र॒ । त्वत् । उत्ऽत॑रः । न । ज्याया॑न् । अ॒स्ति॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । नकिः॑ । ए॒व । यथा॑ । त्वम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नकिरिन्द्र त्वदुत्तरो न ज्यायाँ अस्ति वृत्रहन्। नकिरेवा यथा त्वम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठनकिः। इन्द्र। त्वत्। उत्ऽतरः। न। ज्यायान्। अस्ति। वृत्रऽहन्। नकिः। एव। यथा। त्वम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
विषय - 'अनुपम' प्रभु
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = सब शक्ति के कर्मों को करनेवाले परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! [सर्वाणि बलकर्माणि इन्द्रस्य, इदि परमैश्वर्ये] (त्वद्) = आप से (उत्तर:) = उत्कृष्टतर (नकि:) = कोई भी नहीं है। आपकी शक्ति व ऐश्वर्य को कोई भी अभिभूत नहीं कर सकता। [२] हे (वृत्रहन्) = सब ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करनेवाले प्रभो! आप से (ज्यायान्) = अधिक प्रशस्यतर न कोई भी नहीं है । आप ही उपासक को वासना शून्य जीवनवाला बनाकर उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त कराते हैं । परन्तु एक उपासक कितना भी उत्कृष्टतर व प्रशस्यतर जीवनवाला बनता जाए, तो भी वह (यथा त्वम्) = जैसे आप हैं, वैसा (नकिः एव) = नहीं ही बन सकता 'न मुक्तानामपि हरेः साम्यम्' । प्रभु अनुपम हैं 'न = तस्य प्रतिमा अस्ति' ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु से न कोई उत्कृष्टतर है, न प्रशस्यतर । प्रभुं जैसा भी कोई नहीं ।
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