ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
अस्य॒ हि स्वय॑शस्तर आ॒सा वि॑धर्म॒न्मन्य॑से। तं नाकं॑ चि॒त्रशो॑चिषं म॒न्द्रं प॒रो म॑नी॒षया॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअस्य॑ । हि । स्वय॑शःऽतरः । आ॒सा । वि॒ऽध॒र्म॒न् । मन्य॑से । तम् । नाक॑म् । चि॒त्रऽशो॑चिषम् । म॒न्द्रम् । प॒रः । म॒नी॒षया॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्य हि स्वयशस्तर आसा विधर्मन्मन्यसे। तं नाकं चित्रशोचिषं मन्द्रं परो मनीषया ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअस्य। हि। स्वयशःतरः। आसा। विऽधर्मन्। मन्यसे। तम्। नाकम्। चित्रऽशोचिषम्। मन्द्रम्। परः। मनीषया ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
विषय - आसा-मनीषया [तञ्जपः, तदर्थभावनम् ]
पदार्थ -
[१] हे (स्वयशस्तर:) - अपने कर्मों द्वारा यशवाले जीव ! तू (विधर्मन्) = विशिष्टरूप से धारणात्मक यज्ञादि कर्मों में (आसा) = अपने मुख से, वाणी से (हि) = निश्चयपूर्वक (अस्य मन्यसे) = इस प्रभु का स्तवन करता है। इसी के नामों का उच्चारण करता है [तज्जपः] । [२] (तम्) = उस (नाकम्) = सुखस्वरूप [दुःखरहित] (चित्रशोचिषम्) = अद्भुत दीप्तिवाले (मन्द्रम्) = आनन्दमय (परः) = सब अन्धकारों से परे विद्यमान [तमसः परस्तात्] प्रभु को (मनीषया) = बुद्धि से (मन्यसे) = मनन करता है, उसका चिन्तन करता है [तदर्थ भावनम्] । मुख से बोले गये नामों का बुद्धि से अर्थभावन करनेवाला होता है।
भावार्थ - भावार्थ– उत्तम यज्ञादि कर्मों में प्रभु के नामों का ही मुख से उच्चारण करें। उन्हीं नामों के बुद्धि द्वारा अर्थभावन से उस आनन्दस्वरूप प्रभु का ही चिन्तन करें।
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