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ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
म॒नु॒ष्वत्त्वा॒ नि धी॑महि मनु॒ष्वत्समि॑धीमहि। अग्ने॑ मनु॒ष्वद॑ङ्गिरो दे॒वान्दे॑वय॒ते य॑ज ॥१॥
स्वर सहित पद पाठम॒नु॒ष्वत् । त्वा॒ । नि । धी॒म॒हि॒ । म॒नु॒ष्वत् । सम् । इ॒धी॒म॒हि॒ । अग्ने॑ । म॒नु॒ष्वत् । अ॒ङ्गि॒रः॒ । दे॒वान् । दे॒व॒ऽय॒ते । य॒ज॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मनुष्वत्त्वा नि धीमहि मनुष्वत्समिधीमहि। अग्ने मनुष्वदङ्गिरो देवान्देवयते यज ॥१॥
स्वर रहित पद पाठमनुष्वत्। त्वा। नि। धीमहि। मनुष्वत्। सम्। इधीमहि। अग्ने। मनुष्वत्। अङ्गिरः। देवान्। देवऽयते। यज ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - निधीमहि-समिधीमहि
पदार्थ -
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! (मनुष्यत्) = मनु की तरह एक विचारशील पुरुष की तरह (त्वा) = आपको (निधीमहि) = अपने हृदयों में स्थापित करते हैं। (मनुष्वत्) = एक विचारशील पुरुष की तरह (समिधीमहि) = अपने हृदयों में आपको समिद्ध करते हैं। ध्यान द्वारा आपको हृदयों में स्थापित करने के लिये यत्न करते हैं तो स्वाध्याय द्वारा आपकी ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करके आपके प्रकाश को देखने का प्रयत्न करते हैं । [२] हे (अंगिरः) = हमारे अंग-प्रत्यंग में रस का संचार करनेवाले प्रभो ! (मनुष्वत्) = एक विचारशील पुरुष की तरह (देवयते) = दिव्य गुणों की कामनावाले मेरे लिये (देवान् यज) = दिव्य वृत्ति के पुरुषों को आप मेरे साथ संगत करिये ताकि उनके संग से मेरे अन्दर भी दिव्य गुणों का वर्धन हो ।
भावार्थ - भावार्थ- हम ध्यान द्वारा प्रभु को हृदयों में स्थापित करें, स्वाध्याय द्वारा उनके प्रकाश को देखें । प्रभु कृपा से दिव्य पुरुषों के संग से देववृत्तिवाले बनें ।
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