ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
ऋषिः - त्र्यरुणस्त्रैवृष्णस्त्रसदस्युश्च पौरुकुत्स अश्वमेधश्च भारतोऽविर्वा
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिगुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
समि॑द्धो अ॒ग्निर्दि॒वि शो॒चिर॑श्रेत्प्र॒त्यङ्ङु॒षस॑मुर्वि॒या वि भा॑ति। एति॒ प्राची॑ वि॒श्ववा॑रा॒ नमो॑भिर्दे॒वाँ ईळा॑ना ह॒विषा॑ घृ॒ताची॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठसम्ऽइ॑द्धः । अ॒ग्निः । दि॒वि । शो॒चिः । अ॒श्रे॒त् । प्र॒त्यङ् । उ॒षस॑म् । उ॒र्वि॒या । वि । भा॒ति॒ । एति॑ । प्राची॑ । वि॒श्वऽवा॑रा । नमः॑ऽभिः । दे॒वान् । ईळा॑ना । ह॒विषा॑ । घृ॒ताची॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समिद्धो अग्निर्दिवि शोचिरश्रेत्प्रत्यङ्ङुषसमुर्विया वि भाति। एति प्राची विश्ववारा नमोभिर्देवाँ ईळाना हविषा घृताची ॥१॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽइद्धः। अग्निः। दिवि। शोचिः। अश्रेत्। प्रत्यङ्। उषसम्। उर्विया। वि। भाति। एति। प्राची। विश्वऽवारा। नमःऽभिः। देवान्। ईळाना। हविषा। घृताची ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 28; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
विषय - विश्ववारा का सुन्दर जीवन
पदार्थ -
१. (समिद्धः) = स्तुति व स्वाध्याय द्वारा हृदय में दीप्त किये हुए (अग्निः) = अग्रणी प्रभु (दिविः) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (शोचिः अत्) = ज्ञानदीप्ति को स्थापित करते हैं। (उषसं प्रत्यङ्) = प्रत्येक उषाकाल में - ब्राह्ममुहूर्त में प्राप्त होते हुए वे प्रभु (उर्विया) = खूब ही (विभाति) = दीप्त होते हैं। प्रत्येक उषा में खूब ही प्रभु का प्रकाश दिखता है। २. ऐसा होने पर यह (विश्ववारा) = सब बुराइयों का अपने से निवारण करनेवाली यह उपासिका (प्राची एति) = अग्रगतिवाली होती हुई क्रियाशील होती है। (नमोभिः) = नमस्कारों के द्वारा (देवान्) = 'माता, पिता, आचार्य, अतिथि व प्रभु' रूप देवों का (ईडाना) = यह पूजन करती है तथा (हविषा) = दानपूर्वक अदन से वह (घृताची) [घृतं अञ्चति] = ज्ञान दीप्ति को प्राप्त करनेवाली होती है तथा सब मलों का क्षरण कर पाती हैं [घृ क्षरणदीप्तयोः] । यह दानपूर्वक अदन की वृत्ति, भोगवृत्ति से हमें दूर करके, हमारे ज्ञान को बढ़ाती है तथा हमारे मानस व शरीर मलों को दूर करती हैं।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु को हृदयों में दीप्त करने का प्रयत्न करें। नम्रता से देवों का पूजन करें। दानपूर्वक अदन से ज्ञानदीप्ति को बढ़ाएँ व मलों को अपने जीवन से दूर करें ।
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